Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 139
________________ अनेकान्त/२० ६ स्यात् अपुत्र अवक्तव्य है अर्थात् जब यह देवदत्त अपने पिता से अन्य की अपेक्षा अपुत्र है तब ही एक समय मे कहने योग्य न होने से अवक्तव्य है। ७. स्यात् पुत्र अपुत्र अवक्तव्य है अर्थात् अपने पिता की अपेक्षा पुत्र, पर की अपेक्षा अपुत्र तब ही एक समय में कहने योग्य न होने, से अवक्तव्य है। इसी तरह सूक्ष्म व्याख्यान की अपेक्षा से सप्तभंगी का कथन जान लेना चाहिए । स्यात् द्रव्य है इत्यादि ऐसा पढ़ने से प्रमाण सप्तभगी जानी जाती है। क्योंकि स्यात् अस्ति यह वचन सकल वस्तु को ग्रहण करने वाला है, इसलिए प्रमाण वाक्य है-'स्यात् अस्ति एव द्रव्यम्' ऐसा वचन वस्तु के एक देश को अर्थात् उसके मात्र अस्तित्व स्वभाव को ग्रहण करने वाला है। इससे नय वाक्य है, क्योकि कहा है-"सकलादेशःप्रमाणधीनो विकलादेशो नयाधीन" इति अर्थात् वस्तु सर्व को कहने वाला वचन प्रमाण के अधीन है और उसी के एक अश को कहने वाला वचन नय के आधीन है। स्याद्वाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है। तत्स्वरूप वस्तु के यथार्थ ग्रहण के लिए अनेकान्त दृष्टि है। स्पाद्वाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। वह निमित्तभेद या अपेक्षाभेद से निश्चित विरोधी धर्ययुगलो का विरोध मिटाने वाला है। जो वस्तु सत् है वही असत् है। किन्तु जिस रूप से सत् है उसी रूप से असत् नहीं है स्वरूप की दृष्टि से सत् है और पर रूप की दृष्टि से असत् । दो निश्चय दृष्टि बिन्दुओ के आधार पर वस्तु तत्व का प्रतिपादन करने वाला वाक्य संशयरूप हो नहीं सकता । स्याद्वाद को अपेक्षावाद या कथचिद् वाद भी कहा जा सकता है। यह सत्य है कि स्याद्वाद की नीव अपेक्षा है। अपेक्षा कहाँ होती है? जहा वास्तविक एकता और ऊपर से विरोध दिखलाई पड़ता हो। विरोध वहाँ होता है जहाँ निश्चय होता है, किन्तु अपेक्षा के साथ विरोध के लिए अवकाश नहीं होता है। अपेक्षा को ध्यान में न रखने वाले स्यात् शब्द के अर्थ को ठीक से समझ भी नही सके और उन्होने स्यात् का अर्थ संशय, संभावना आदि समझकर

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