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अनेकान्त/२३
जैन धर्म और आयुर्वेद
राजकुमार जैन आयुर्वेद शास्त्र चूँकि परोपकारी शास्त्र है, अत जैन धर्म के अन्तर्गत वह उपादेय है। यही कारण है कि धर्म-दर्शन-आचार-नीति शास्त्र-ज्योतिष आदि अन्यान्य विद्याओ की भाँति वैद्यक विद्या भी जैन धर्म के अन्तर्गत प्रतिपादित है। सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र देव द्वारा जिस प्रकार अन्य विद्याओ का कथन किया गया है उसी प्रकार आयुर्वेद विद्या का कथन भी सांगोपाग रूप से विस्तार पूर्वक किया गया है। अपने लोकोपकारी स्वरूप के कारण आयुर्वेद शास्त्र की व्यापकता इतनी अधिक रही कि वह शाश्वत रूप से विद्यमान है। सर्वज्ञ वीतराग की वाणी द्वारा मुखरित होने के कारण अनेक प्रभावी जैनाचार्यों ने इसे अपनाया और गहन रूप से उसके गूढ़तम तत्वो का अध्ययन किया। जैन धर्म के ऐसे अनेक आचार्यों की एक लम्बी परम्परा प्राप्त होती है जिन्होने अपने प्रखर पाण्डित्य के अधीन आयुर्वेद शास्त्र को भी समाविष्ट किया। इसका एक प्रमाण तो यही है जिन आचार्यों ने सर्वज्ञ वाणी का मथन कर आयुर्वेदामृत को निकाला उसे उन्होने अपनी महिमामयी लेखनी के द्वारा लिपिबद्ध कर जगहितार्थ प्रसारित किया। उन आचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद विषयक ऐसी अनेक कृतियो का उल्लेख अन्यान्य ग्रंथो मे मिलता है। इससे इस तथ्य की तो पुष्टि होती है कि जैन धर्म में अन्य विधाओं की भॉति आयुर्वेद का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि धर्म और दर्शनशास्त्र ने जिस प्रकार जैन संस्कृति के स्वरूप को अक्षुण्ण बनाया है, आचारशास्त्र और नीतिशास्त्र ने जिस प्रकार जैन सस्कृति की उपयोगिता को उद्भासित