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अनेकान्त/२१
स्याद्वाद को सशयवाद या सभावनावाद तक कह दिया जो जैनशासन के लिए तो अहितकारी है ही, साथ उनके अल्पज्ञान का सूचक भी है।
स्याद्वाद को सम्यक् प्रकार से जानने के लिए समन्तभद्राचार्य प्रणीत स्तोत्र साहित्य मे पैठ बनाना होगी। स्यात् शब्द मूलत. तिडन्त प्रतिरूपक निपात (अव्यय) है। यह पद अनेकान्त का घोतन करता है। स्यादस्ति पट:' इस वाक्य में अस्ति पद वस्तु के अस्तित्व धर्म का वाचक है और 'स्यात् पद उसमें रहने वाले नास्तित्त्व आदि शेष धर्मों का द्योतन करता है। इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्। स्यान्निपातोऽर्थ योगित्वात्तव केवलिनामपि।। -आप्तमीमांसा १०३
अर्थात् हे भगवन! आपके मत मे ‘स्यात्'-शब्द अर्थ के साथ सम्बद्ध — होने के कारण ‘स्यादस्ति घटः' इत्यादि वाक्यो मे अनेकान्त का द्योतन होता है और गम्य अर्थ का विशेषण होता है। स्यात् शब्द निपात है तथा केवलियो और श्रुत केवलियो को भी अभिमत है।
स्यात् पद एकान्त के परित्याग पूर्वक कथचित् अर्थ मे प्रयुक्त है। आचार्य अकलक देव ने 'अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः' अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन का नाम स्याद्वाद है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि कथञ्चित के अर्थ मे ‘स्यात् निपात शब्द का प्रयोग होता है। जिससे एकान्त का खण्डन
और अनेकान्त का मण्डन होता है। स्याद्वाद मञ्जरीकार श्री मल्लिषेण भी लिखते हैं-'"स्यादित्यव्ययमनेकान्तताद्योतकं ततः स्याद्वादः अनेकान्तवादः नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैक वस्त्वभ्युपगम इति यावत्'' अर्थात् स्यात् यह अव्यय पद अनेकान्त का द्योतक है। इसलिए नित्य अनित्य आदि अनेक धर्मरूप एक वस्तु का कथन स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है।
यह इतना व्यापक सिद्धान्त है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे इसका प्रयोग दिखलायी पड़ता है-जैसे आधुनिकविज्ञान, राष्ट्रीय, लोक-व्यवहार, साम्प्रदायिकता के निराकरण, दैनिक जीवन अहिसा लोक आदि । इन विषयो मे विविध की चर्चा अन्य आलेखो मे भी आयेगी यहाँ कुछ का सकेत मात्र किया जा रहा है।