Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 133
________________ अनेकान्त/१४ आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद डॉ. श्रेयांसकुमार जैन लोक मे अनन्त वस्तु विद्यमान है। सभी वस्तु अनेक धर्मात्मक है। समस्त धर्मो का युगपत्-कथन असभव है। वाणी युगपत् कथन सामर्थ्यवान् नहीं है, क्योकि यह तो क्रमवर्तिनी होती है। वस्तु-स्वरूप के प्रगट करते समय जब विवक्षित धर्म का कथन किया जाता है तब अविवक्षित धर्मों का अभाव नहीं अपितु वे गौण होते हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग आवश्यक है। स्यात्' पद का अर्थ कथचित् याने अपेक्षासहित है। स्यात्'-शब्द के प्रयोग से सर्वथा अर्थात् एकान्त का निषेध होता है। जैनागम स्यात् पदाङ्कित है, इसीलिए जगत् मे अविरोध को प्राप्त और सम्यक है। जैसे कि कहा भी गया है-"परसंमयो (जैनेतर मतो) का वचन सर्वथा कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है और जैनी का वचन कथचित् (स्यात्) कहा जाने से वास्तव मे सम्यक है। यथा - परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु खलु होदि सव्वहा वयणा। जइणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो।।-प्रवचनसार परिशिष्ट आचार्य समन्तभद्र स्याद्वाद सिद्धान्त के सम्यक् प्रतिपादक है। इन्होने स्याद्वाद और केवलज्ञान को एक ही माना है। यथा स्याद्वादे केवलज्ञाने सर्वतत्त्व प्रकाशने। भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत्।। -आप्तमीमासा, १०५ स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों सब तत्त्वो के प्रकाशक है। दोनों के प्रकाशन मे मात्र साक्षात् असाक्षात् का अन्तर है। जो इन दोनो के द्वारा प्रकाशित नहीं है, वह अवस्तु है।

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