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अनेकान्त/१४
सोनगढ़ साहित्य : समयसार का अर्थ विपर्यय
पं० नाथूलाल शास्त्री समयसार गाथा ३२० या ३४१ (दिट्ठी सयपिणाण) की आचार्य जयसेन टीका तात्पर्य वृति मे “भव्यत्वलक्षण पारिणामिकस्य तु यथा सम्भव च सम्यक्त्वादि जीवगुणघातक देशघातिसर्वघातिसज्ञ मोहादिकर्म सामान्य पर्यायर्थिकनयेन प्रच्छादक भवति इति विज्ञेय । तत्र च यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तेर्व्यक्तिर्भवति तदाय जीव सहजशुद्धपारिणामिकभावलक्षण निजपरमात्म द्रव्य सम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरण पर्यायरूपेण परिणमति। तच्च परिणमनमागमभाषयौपशमिक क्षायोपशमिक क्षायिक भावत्रय भण्यते। अध्यात्मभाषया पुन शुद्धात्माभिमुखपरिणाम शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसज्ञा लभते।
इस उद्धरण को श्री कानजीस्वामी ने “ध्येयपूर्वकज्ञेय” एव “अध्यात्मरत्नत्रय" पुस्तको के प्रवचनों मे चतुर्थ गुणस्थान का विषय सिद्ध किया है, परन्तु आचार्य जयसेन ने इसी विषय को गाथा ४३६ (ववहारिओ पुन णओ) की टीका मे पुन पारिणामिक के तीन भेदो मे अभव्यत्व को मुक्ति का कारण नही बताने के पश्चात्
“यत्पुनर्जीवत्वभव्यत्वद्वय तस्य द्वयस्य तु यदाय जीवो दर्शनचारित्रमोहनी योपशमक्षयोपशम क्षयलाभेन वीतराग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयेण परिणमति तदा शुद्धत्व । तच्च शुद्धत्व औपशामिकक्षायोपशमिकक्षायिकभावत्रयस्य सम्बन्धि मुख्यवृत्या, पारिणामिकस्य पुनर्गौणत्वेनेति।"
यहाँ प्रथम उल्लेख को स्पष्ट करते हुए जीवत्व और भव्यत्व की व्यक्ति रूप से शुद्धता का उल्लेख है। शक्ति मात्र से तो पारिणामिक पहले से शुद्ध है जो ध्येय रूप मे है, क्योकि यहाँ पचमभाव पारिणामिक भाव से मुक्ति होती है। यह मोक्षाधिकार के बाद बताया गया है। उसमें दोनो उद्धरण भव्यत्व को लेकर हैं और सापेक्ष है। भव्यत्व की साक्षात् व्यक्ति (प्रकटपना) ७वे गुणस्थान से १४वे गुणस्थान तक होती