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अनेकान्त/४
चलो एक बार ऐसा भी मान लें तो क्या हर्ज है। परतु भाषाविज्ञान का जब यथायोग्य अध्ययन करते है तब यह बात उचित नहीं ठहरती। उपरोक्त सत्र के पहले जो अन्य सूत्र दसवें और ग्यारहवे परिच्छेद मे (प्राकृत प्रकाशः वररुचि) दिये गये हैं वे इस प्रकार है
(१) पैशाची १० १, प्रकृति. शौरसेनी १०२ (२) मागधी ११.१ , प्रकृति. शौरसेनी ११२
यहाँ पर विवक्षित अर्थ यह है कि जो लक्षण शौरसेनी भाषा के बताये गये हैं उनके सिवाय कुछ अन्य लक्षण जो बताये जा रहे हैं वे पैशाची प्राकृत और मागधी प्राकृत पर लागू होते हैं। यहाँ पर प्राकृति का अर्थ दूसरी भाषा समझने के लिए शौरसेनी का आधार लिया जा रहा है और फिर अमुक परिवर्तन करने पर, जोडने पर, निकाल देने पर पैशाची प्राकृत और मागधी प्राकृत के लक्षण बन जाते हैं।
वररुचि के व्याकरण में तो 'प्रकृति' शब्द का प्रयोग हुआ है परंतु हेमचन्द्राचार्य इसी संबंध में शौरसेनी प्राकृत के लिए अन्त में जो सूत्र देते है उसे योग्यरूप में समझना होगा। प्रारभ मे महाराष्ट्री प्राकृत के नियमों का वर्णन करने के बाद शौरसेनी का वर्णन करते हैं, महाराष्ट्री प्राकृत से उसकी जो विशेषताएँ हैं उनका वर्णन ८.४.२६० से २८५ सूत्र में करने के बाद अन्तमें वे सूत्र नं. ८ ४.३८६ मे कहते है
शेषं प्राकृतवत् ८.४.२८६
पुनः च यदि हेमचन्द्राचार्य मागधी प्राकृत के नियमों का वर्णन करने के बाद अन्त में उसके लिए भी ऐसा ही कहते हो कि
शेष शौरसेनीवत् ८.४.३०२
तब फिर इन सूत्रों में शब्द के अन्त में जो ‘वत्' प्रत्यय है उसे 'प्रकृति' शब्द के समानार्थ मानकर शौरसेनी की प्रकृति प्राकृत अर्थात् महाराष्ट्री प्राकृत बन जाएगी। क्या सह सत्य मानने के लिए शौरसेनी भाषा के प्रबल प्रचारक तैयार होंगे? यदि हाँ तो शौरसेनी भाषा ही महाराष्ट्री प्राकृत में से निकली है यह उन्हें मानना पडेगा, है ऐसा तथ्य मानने की उनकी तैयारी?