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अनेकान्त/१८
यह भी कहा जा सकता है कि सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र से ही भक्ति योग, ज्ञानयोग व कर्मयोग फलित होते है। जैनेतर भक्ति मार्ग अराध्य को प्राप्त करने या उसमे विलीन होने के लिए अपनाया जाता है या फिर केवल सासारिक याचनाए ही उसमे होती है। जैन भक्ति मार्ग का असली ध्येय मुक्ति है। यह आत्मा को परमात्मा बनाने की प्रक्रिया है। जैनेतर दर्शन मे कुछ मानते है कि एक परमात्मा मे अन्य आत्माए विलीन होती है। जैन दर्शन के अनुसार अनन्त परमात्माओ मे अनन्त परमात्माए समा जाती है, किन्तु साथ ही यह भी मान्यता है कि भक्ति से पुण्य कर्म का आस्रव व बध होता है, इसलिए सासारिक सम्पदा व सुख भी उनके उदय से प्राप्त होते है। फिर भी जहा भक्ति है वहा राग है जो कर्म बध का, चाहे पुण्य कर्म का ही हो, कारण है। तथापि जैन दर्शन भक्ति और पूजन आदि का प्रतिपादन करता है
और इन्हे सम्यक् दर्शन के साथ सम्यक् चरित्र का भी अग मानता है । मूर्ति वैसे तो केवल पत्थर या धातु मात्र है, परन्तु उसमे श्रद्धापूर्वक नाम-स्थापना निक्षेप करने पर वह पूज्य हो जाती है। भाव व श्रद्धा के कारण मात्र पत्थर व धातु, मात्र धातु नही रह जाते और वह वही हो जाता है जो हमने मान लिया।
अरहत भगवान चाहे वे वर्तमान है या हो चुके है या होगे वे तथा सिद्ध भगवान न कुछ ले सकते है और न प्रत्यक्ष रूप से कुछ दे ही सकते है। वे तो मोक्ष मार्ग का उपदेश दे चुके है, रास्ता दिखा चुके है। यही बात शास्त्र और गुरु पर भी लागू होती है, फिर इनसे रागात्मकता स्थापित करना और कर्मबध करना कहाँ की अक्लमदी है। इसका समाधान समन्तभद्र इस तरह करते है
पूज्यं जिनं त्वाऽर्चयिता जनस्य सावद्यलेशो बहु पुण्यराशौ। दोषाय नाऽलं, कणिका विषस्य न दोषाय शीतशिवाम्बुराशौ।।
(हे जिन। आपकी पूजा करने वाले जन के लेशमात्र सावद्य तो होता ही है, परन्तु उससे कही अधिक पुण्य राशि का सचय होता है। इसलिए उसमे दोष उसी प्रकार नहीं है जैसे शीतल शिवकर जलराशि मे विष की एक कणिका कोई खराबी पैदा नही कर सकती)
पडित प्रवर टोडरमल जी ने इसका समाधान बड़े ही प्रभावी ढग से यो किया है-जब राग का उदय हो तो यदि उसे शुभ प्रवृत्ति मे न लगाया जाय तो वह अशुभ प्रवृत्ति और पाप कर्म का आस्राव करेगा। इसलिए रागोदय का उपयोग देव, शास्त्र, गुरु की सेवा-पूजन मे किया जाना ही श्रेयस्कर है। इसलिए हमारी पूजा के शब्दो मे सारे जैन सिद्धात और मिथिक ही गाए जाते है।