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अनेकान्त/२१
हे इन्द्र। हवन करने वाले के पात्र से इस सोम को पिओ जिसे तुम्हारे लिए दूध और पानी के साथ पत्थर से पीस छानकर हवन करने वाले ने तैयार किया है। यह वषट् कृत है, स्वाहा के साथ इस पर तुम्हारा ही पहला हक है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इसी ऋचा मे स्वाहा का अर्थ 'उत्तम क्रिया के साथ' और वषट् कृत का अनुवाद “क्रिया से सिद्ध किए हुए है" किया है। अन्यत्र ७/१४/३ मे “सत्य क्रिया" ७/१००/७ मे 'श्रद्धा' तथा ८/२/८२ मे ‘वषट् शब्द द्वारा सम्मानित' यह अर्थ किया है। दरअसल कुछ ध्वनियो के कोई अर्थ नहीं होते, वे केवल भाव के सकेत वाचक है। जैसे हे, हा, हाय हाय, अरे, हो, हो उफ। इसी प्रकार वषट् स्वाहा संवोषट् का भी कोई अर्थ नहीं है। केवल आराध्य के स्वागत सत्कार का एक तरीका है। वेद मे तो स्वाहा व वषट् के प्रयोग के बिना आहुति निरर्थक ही नही, किन्तु हानिकारक भी मानी जाती है। ठः ठः ठः केवल बैठन के स्थान की ओर इगित करते है। ठ उस पवित्र स्थल को कहते है जहाँ कोई आकर बैठ सकता है।
यह आह्वानन, स्वागत-सत्कार श्वेताम्बर पूजा पुस्तको मे केवल दादा गुरु की पूजा मे पाया जाता है। तीर्थकरो व सिद्धो की पूजा मे देखने मे नही आया । पूजा के विषय मे अन्यथा कोई मौलिक भेद नही है।
अब जब हमने अपनी कल्पना या भावना से पूज्य को बुला ही लिया, पास मे बिठा भी लिया तो फिर स्थान को धूप चदन से सुगन्धित व दीपक से प्रकाशित करने के साथ-साथ पानी, फल, फूल, अन्न (चावल) पकवान भी समर्पित करने ही होगे। एक-एक वस्तु समर्पित करके फिर आठो ही पदार्थो को मिलाकर अर्ध्य भी पेश करते है। भगवद्गीता मे कृष्ण कहते है-पत्रं पुष्प फलं तोय यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहतं अश्नामि प्रयतात्मनः।। (जो भक्ति पूर्वक मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल चढ़ाता है उसको प्रयतात्मा मै ग्रहण करता हूँ।)
कठिनाई आई कि बाते तो बड़ी लुभावनी कर ली कि हे आराध्य! मै आपके लिए तरह-तरह के पकवान, दीपक आदि लेकर आया हूँ, परन्तु ऐसा हर दिन हर शख्स नहीं कर सकता, इसलिए सफेद चावल मे अक्षत, रगे चावल मे फूल, बादाम आदि मे फल, नारियल की गिरी मे दीप व नैवेद्य की स्थापना कल्पना करके समर्पित करते है। कहते है यह द्रव्य कल्पना सचित्त पदार्थ का प्रयोग वर्जित करने के लिए की जाती है। यदि ऐसा ही हैं तो फिर पूजा की भाषा में परिवर्तन करना समुचित होता। इसलिए कई भक्त यथालिखित सचित्त पदार्थो का भी उपयोग करते है। बीस पथी अभिषेक मे तो