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अनेकान्त/२७
पाठ किया जाता है जिसमे प्रार्थना की जाती है कि वृषभ आदि तीर्थकर पुर, देश, राष्ट्र, जगत मे सर्वत्र सब की सब तरह से शाति करे और राज करने वाले बलवान और धर्मवान हों और जैन धर्म चक्र का प्रभाव हो।
तीर्थकरो का जीवन-काल दो भागो मे विभाजित किया जा सकता है। १ दीक्षा के पहले तथा २ दीक्षा के बाद। पहले भाग मे वे शक्ति पूर्वक शासन व्यवस्थाओ में व सामान्य जनता के सर्वमुखी कल्याण मे लगे होते है और दीक्षा के बाद आत्म हित मे लगे रहते हुए भी अपने उपदेशो के द्वारा परहित साधन करते है। उनके प्रभाव से, उनकी मौजूदगी मात्र से ही ससार मे सुख-शाति व्याप्त हो जाती है। पूजा के अत मे इसी शाति की कामना की जाती है। करोतु शाति भगवाञ्जिनेन्द्र ।
२१५, मंदाकिनी एन्क्लेव, अलकनंदा, नई दिल्ली-१९
भावेण होइ णग्गो बाहिर लिंगेण किं च णग्गेण। कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण।। णग्गत्तणां अकज्जं भावणरहियं जिणेहि पण्णत्तं। इयणाऊण य णिच्चं भाबिज्जहि अप्पयं धीर।।
-भावपाहुण ५४-५५ - भाव से नग्नपना होता है, केवल बाहरी नग्न वेष से क्या लाभ है? भावसहित द्रव्यलिग होने पर कर्म प्रकृति-समूह का नाश होता है, मात्र द्रव्यलिग से नही । भाव-रहित नग्नपना कार्यकारी नही ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। ऐसा जानकर हे धीर! सदा आत्मा का चिंतन कर।
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