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चिन्तनीय
पूजा और मंत्र
हउँ कि पिण जाणमि मुक्खु मणे ।
यि बुद्धि पयासमि तो वि जणे ।। (स्वयम्भू, पउम चरिउ)
अनेकान्त / १७
न्यायमूर्ति एम. एल. जैन
( मै कुछ भी नही जानता, मन मे मूर्ख हू, तो भी लोगो के सम्मुख अपनी बुद्धि को प्रकाशित करता हू)
दिगम्बर जैन परिषद, दिल्ली द्वारा सचालित सामूहिक पूजन के आयोजनो ने दिल्ली दिगम्बर जैन समाज मे कुछ हलचल पैदा की है। मूर्ति पूजन के विषय मे पहले भी सवाल उठाए गए है, जवाब भी दिए गए है, फिर भी मेरे मन मे कुछ सवाल जवाब उठ रहे है।
'पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार ।
तातें आ चाकी भली पीस खाय संसार ।।'
पूजा का साधारण अर्थ सत्कार है और मत्र का अर्थ है ध्यान- चितन । यह आदर-सत्कार का साधन भी है। मूर्ति पूजा का इतिहास सदियो पुराना है । परन्तु कबीर कहते है
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ठीक यही बात जैन धर्म भी कहता है कि द्रव्य पूजा भाव पूजा के बिना व्यर्थ है। भाव पूजा है तो पर्वत पूजन से भी आत्म शुद्धि मिल सकती है। प० पद्मचद शास्त्री का कहना है कि जिन शासन मे मूर्ति की पूजा का विधान नही है, अपितु मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान की पूजा का विधान है। प्रकारातर से यह जीव अर्हत् की पूजा के बहाने अपने गुणो का ही स्मरण करता है (दो शब्द, श्री जिनेन्द्र पूजन, अहिंसा स्थल, नई दिल्ली) ।
मेरे ख्याल से पूजन भक्ति-योग का रूप है और सम्यक् दर्शन और भक्ति योग मे अधिक अन्तर नही है, क्योंकि श्रद्धा दोनों का ही मूल आधार है। कुछ हद तक