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अनेकान्त/30 भाग दाल-भाक सहित भात आदि से पूर्ण करने चाहिए तथा तीसरा भाग जल से पूर्ण करना चाहिए और चौथा भाग खाली रखना चाहिए। यह प्रमाणभूत आहार कहलाता है, इसका उल्लंघन करने पर अर्थात् प्रमाण से अधिक आहार ग्रहण करने पर प्रमाण (अतिमात्र) नाम का दोष होता है।।
3. अंगार-जो गृद्धि (लम्पटता) युक्त होता हुआ आहार ग्रहण करता है, वह अंगार दोष से युक्त है। ____4. धूम-जो निन्दा करते हुए अर्थात् यह भोजन खराब है, मुझे अच्छा नहीं लगता इस प्रकार कहते हुए आहार ग्रहण करता है उसके धूम दोष होता है, क्योंकि इसके अन्तरंग में संक्लेश देखा जाता है।
अधःकर्म दोष-यति को भोजनादि के लिए छह काय के जीवों को बाधा देना अथवा ऐसे कारण से उत्पन्न भोजनादि आधाकर्म कहे जाते हैं। मूलाचार में अधःकर्म को इन 46 दोषों से पृथक तथा आठ प्रकार की पिण्डशुद्धि से बाह्य महादोषरूप कहा गया है। यह दोष पाँच सूनाओं से युक्त होने के कारण अधःकर्म कहा जाता है, क्योंकि इन सूनाओं से कूटना, पीसना रसोई करना, जल भरना और बुहारी देना, ये हिंसा युक्त क्रियायें होती हैं। जो ऐसा आहार ग्रहण करता है, वह श्रावक बनने योग्य नहीं है। अतः साधु को इन 46 दोषों से तथा अधःकर्म से रहित निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए।
भोजन के योग्य काली-मुनि को , भिक्षाकाल, बुभुक्षाकाल और अवग्रहकाल इन तीन दृष्टियों से अपने आहार का समय जानना चाहिए।
भिक्षाकाल-अमुक मासों में, ग्राम नगर आदि में अमुक समय भोजन लेता है अथवा अमुक कुल का या मुहल्ले का, अमुक समय का भोजन का है। इस प्रकार इच्छा के प्रमाण आदि से भिक्षा का काल जानना चाहिए।
बुभुक्षाकाल-मेरी भूख आज मन्द है या तीव्र है, इस प्रकार अपने शरीर की स्थिति की परीक्षा करनी चाहिए।
अवग्रहकाल-मैने पहले यह नियम लिया था कि इस प्रकार का आहार नहीं लूंगा और आज मेरा नियम है-इस प्रकार विचार करना चाहिए।
मूलाचार मे आहार काल के विषय मे कहा है-सूर्य उदय के तीन घड़ी बाद
1. वही, गा. 476; वही 5/38 2 वही, गा. 477%; वहीं 5/38 3. वही, गा. 477; वही, 5/37 4. भ आ. पृ. 248 5. प. आ. गा.422 की टीका 6. कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी।
बीहेदव्यं विच्च ताहिं जीवरासी से मरदि।। मू. आ. गा. 928 7. वही, गा. 929. 8. भ. आ. गा. 1200 की वि०. प. 807-808, 9. मू. आ. गा. 492