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द्रव्यार्थिक व्यवहारनय अभूतार्थ क्यों?
ले. रूपचन्द कटारिया समय पाहुड़ की प्राचीन प्रतियों में ग्यारहवीं गाथा का मूल पाठ निम्न प्रकार से मिलता है
ववहारो भूदत्थो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धणओ । भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठि हवदि जीवो । । आचार्यों ने इसकी संस्कृत छाया निम्न प्रकार से की हैव्यवहारो ऽ भूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः । भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ।।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने आत्मख्याति टीका में उपर्युक्त संस्कृत छाया के आधार पर टीका करते हुए लिखा है
"व्यवहार नयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतार्थं प्रद्योतयति शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थं प्रद्योतयति । "
श्री अमृतचन्द्राचार्य द्वारा उपर्युक्त गाथा की टीका करते हुए अपनी आत्मख्याति टीका में व्यवहारनय को सर्वथा अभूतार्थ / असत्यार्थ कहा है और केवल शुद्ध नय को भूतार्थ कहा है। यह कथन उपर्युक्त संस्कृत छाया के अनुकूल और मूल गाथा के प्रतिकूल जान पड़ता है।
समय पाहुड़ की किसी भी गाथा में तथा कुन्दकुन्दाचार्य की किसी भी कृति में व्यवहार को असत्यार्थ नहीं कहा गया है और उस नय को जिनोपदिष्ट बतलाया गया है। इससे प्रतिफलित होता है कि व्यवहार नय जिनोपदिष्ट है और भगवान जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित होने से सत्यार्थ है । भगवान जिनेन्द्र देव राग, दोष और मोह से रहित होने से कभी भी असत्यार्थ का कथन नहीं करते है ? और नय के दृष्टा भाषा समिति का परिपालन करते हुए पैशून्य ( चुगली), हास्य, कर्कश, परनिन्दा और आत्म प्रशंसा रूप वचन को छोड़ कर स्व-पर हितकारी वचन को बोलने वाले होते हैं, अतः वे भी असत्यार्थ का कथन नहीं करते हैं ।
अतः जिनोपदिष्ट सम्पूर्ण दर्शन स्याद्वाद से परिपूरित है और स्याद्वाद की पूर्ति के लिए एकान्त का विरोध होना चाहिये । इसके विपरीत टीकाकार ने एकान्त का पक्ष लेते हुए व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ और शुद्ध नय को सर्वथा सत्यार्थ कह कर एकान्त की पुष्टि की है जो आगम के विरुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पूरे समय पाहुड़ में जहां कहीं भी व्यवहार नय का कथन किया है वहीं निश्चय नय का भी कथन करके दोनों को समान रुप से ग्राह्य किया है।