Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 68
________________ अनेकान्त/25 'सकलजगजंतूनां व्याकरणादिभिरनाहित सस्कारः सहजो वचन व्यापार, प्रकृतिः तद्भवं सैव प्राकृतं। .. प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबंधनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेष सत्संस्कृताधुत्तरविभेदानाप्नोति।' -व्याकरणादि के संस्कार से विहीन समस्त जगत् के प्राणियों के स्वाभाविक वचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं। उसे ही प्राकृत कहा जाता है। बालक, महिला आदि की समझ में यह सरल से आ सकती है और समस्त भाषाओं की यह कारणभूत है। मेघधारा के समान एकरूप और देश-विशेष के कारण या संस्कार के कारण जिसने विशेषता प्राप्त की है और जिसके सत् संस्कृत आदि उत्तर विभेद है-उसे संस्कृत कहते हैं। जो लोग ऐसी आवाज उठाते रहे हैं कि व्याकरण पढे बिना अर्थ का अनर्थ हो सकता है, वे भाषा-विज्ञान के नियमों से अनभिज्ञ हैं । भाषाओ के अपने अपने विभिन्न नियम हैं, वे सब नियम विकसित है। प्राकृत भाषा तो प्राणी की जन्मजात बोली है, उसमें "यद्यपि बहुनाधीषे, तथापि पठ पुत्र व्याकरणं। श्वजनो स्वजनो माभूत् शकलं सकलं सकृत शकृत्।।' जैसी आपत्तियां खडी नही होती। क्योंकि आगमिक भाषा अर्धमागधी (और कथित शौरसेनी में भी) उक्त शब्दो के रूपो में (उनके देशी होने के कारण) कदापि परिवर्तन नहीं होता। यतः उक्त प्राकृतों मे शकार को स्थान ही नहीं है, उनमे सदा ही सकार का प्रयोग होता है-'श्वजन' को सदा 'स्वजन,' 'शकल' को सदा 'सकल,' और 'शकृत् को सदा ‘सकृत' ही बोला जाता है। ऐसे में अर्थ के अनर्थ होने की सम्भावना ही नहीं होती। ऐसे में स्पष्ट है कि-व्याकरण सदा सस्कार की गई यानी संस्कारित भाषा में ही प्रयुक्त होता है और यह नियम है कि संस्कृत यानी संस्कार की गई भाषा सदा ही मूलभाषा की पश्चाद्वर्ती होती है। जब कि प्राकृत अनादि और देशी भाषा है जिसमें कोई भी परिवर्तन नही होता-सभी शब्दरूप यथास्थिति में ही रहते हैं। कुछ लोगों का ख्याल है कि दिव्यध्वनि मागध जाति के देवों द्वारा भाषातिशय को प्राप्त हुई। अतः उसको मागधी कहा गया। परन्तु पं प्रवर आशाधर तथा सहस्रनाम की श्रुतसागरी टीका से स्पष्ट है कि इस भाषा का नामकरण 'सर्वभाषामयीगी' तथा 'अर्धमागधी' देश विशेषों के आधार पर हुआ तथाहि-'सर्वेषां देशानां भाषामयी गीर्वाणी यस्य,' 'अर्धमगधदेशभाषात्मकं अर्ध च सर्वभाषात्मकम् । फलतः हम अर्ध- मागधी को समस्त देशों की मिश्रित भाषा मानने के पक्ष में हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यदि अर्धमागधी नाम की कोई भाषा होती तो आचार्य हेमचन्द्रादि ने उसका भी व्याकरण बनाया होता । उक्त तर्क स्वयं ही सिद्ध कर रहा है कि 'अर्धमागधी' सर्वभाषामयी होने से ही व्याकरणबद्ध न हो सकी, भला,

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