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अनेकान्त/17 श्रद्धावान और भक्तिभाव युक्त होता है। दृढ़ आस्था एवं श्रद्धा और सच्ची भक्ति मी ऐसी हो जो उसके अन्तर्मन को छू सके और उसे निर्मल बना दे ।
किन्तु, आज वातावरण और परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं। आज हमारे सामने जो कुछ भी घटित हो रहा है, यदि उसे ही आधार माना जाय तो स्थिति उत्साहजनक नहीं मानी जा सकती। क्योंकि आडम्बर की जिस विकृति ने समाज में अपनी जगह बनाई है और उसने धर्माचरण में जो विकार उत्पन्न किए हैं उससे मनुष्य धर्म से दूर होता जा रहा है। यदि समय रहते इसका समुचित उपचार नहीं किया गया तो भविष्य में इसे सुधार पाना सम्भव नहीं होगा। काल के प्रभाव से समाज में आई विकृति के कारण आज धार्मिक क्रियाएं, शास्त्र प्रवचन और साधुजन अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। कहीं भी इनका सही प्रभाव नहीं पड़ रहा है। यद्यपि बाह्य रूप से आज सर्वत्र धर्म का बोलबाला है। धार्मिक जुलूस निकाले जा रहे हैं, उनमें भीड़ भी बहुत इकठ्ठी हो रही है, पंचकल्याणक गजरथ आदि धार्मिक आयोजनों की भरमार है, उनमें साधुजनों की उपस्थिति भीड़ एकत्र करने के लिए पर्याप्त है और समाज सेवी संस्थाएं भी बढ़ चढ़ कर भाग ले रही हैं, प्रचार भी खूब हो रहा है और रुपया भी पानी की तरह बहाया जा रहा है। इतना सब होते हुए भी न तो कहीं सहजता है, न स्वाभाविकता है, न मानसिक बदलाव है और न ही आध्यात्मिक धरातल है जहां मनुष्य में सहज, स्वाभाविक आध्यात्मिक गुणों का विकास हो सके ।
वास्तव में यदि देखा जाय तो आज सर्वत्र बोलबाला है अवमूल्यन का । सामाजिक अवमूल्यन, धार्मिक अवमूल्यन, नैतिक अवमूल्यन, वैचारिक अवमूल्यन और बौद्धिक अवमूल्यन । इसी का परिणाम है कि आज समाज में दलबन्दी और साधुओं में खेमाबन्दी को प्रोत्साहन मिला है। साथ ही संस्थाओं में विभिन्न पदों को पाने की होड़ लगी है तो धर्मायतनों में अधिकारों की लड़ाई छिड़ी हुई है। पद और अधिकारों की तृष्णा ने लोगों में जो वैमनस्य, ईर्ष्या और द्वेष के बीज बोए हैं उससे सामाजिक विषमता को पनपने का पर्याप्त अवसर मिला है। बड़ी बड़ी धर्म सभाओं और सम्मेलनों में धर्म को आत्मसात् करने, धर्माचरण करने और महापुरूषों के अनुकरणीय आदर्शों को अपनाने की बात की जाती है, जनता को उपदेश दिया जाता है, किन्तु स्वयं का आचरण उससे ठीक विपरीत होता है। आज धार्मिक आयोजनों और धर्मसभाओं में अन्यायोपार्जित द्रव्य का जो भौंडा प्रदर्शन किया जाता है और उसे जिस प्रकार सफलता का जामा पहनाया जाता है वह आडम्बर और दिखावा की पराकाष्ठा है। आज कथनी और करनी में अन्तर हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है। बात करते हैं सिद्धान्तों की और अपने विपरीत आचरण के द्वारा उन्हीं सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ाई जाती है।
अन्तःकरण की गहराईयों में उतर जाने वाला धर्म आज जीवन के दस हजारवें अंश को भी नहीं छू पा रहा है। हमारी कुत्सित मनोभावनाओं ने धर्म को इस प्रकार