Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 47
________________ अनेकान्त/4 की पुष्टि की है। इस सत्य कथन से मुख मोड़ना आचार्य और आगम दोनों का अपमान तो है ही, साथ ही अनेकान्तवाद पोषक जैनधर्म को भी एकान्त की खाई में ढकेलना है। हम क्या कहें, कहाँ तक कहें? हम तो देख रहे हैं कि आगम की व्याख्या और मूलभाषा में बदलाव के साथ आगमों के मूलनामों में बदलाव की प्रक्रिया भी स्वीकृत की जाती रही है। हमारी जानकारी में तो “समयपाहुड का नाम भी 'समयसार' के रूप में प्रसिद्धि पा गया है। बदलाव की ऐसी प्रक्रियाओं को देखकर ऐसा भी संदेह होने लगा है कि कहीं जैनधर्म के स्वरूप में ही बदलाव न आ जाए? आचार्य कुन्दकुन्द ने मूलग्रंथ का नाम 'समयपाहुड' रखा है। उन्होंने ग्रन्थ के आद्यन्त की दोनों गाथाओं में इसके नाम का उल्लेख किया है ___'वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ।। 1।। -(मैं श्रुतकेवली द्वारा कथित इस समयपाहुड को कहूँगा)। 'जो समय पाहुडमिणं पढिदूण' ।। 415।। (जो इस 'समयपाहुड- को पढकर ।) ऐसी स्थिति में ग्रन्थ के मूल नाम में परिवर्तन होकर इसका नाम 'समय सार' कब से और क्यों हो गया? 'पाहुड' और 'सार' दोनों शब्द पर्यायवाची भी नहीं है। यदि दोनों शब्द पर्यायवाची होते तो कुन्दकुन्द के अन्य पाहुडों में भी 'पाहुड' के स्थान पर 'सार- हो जाना चाहिए था। और उस भांति 'दंसणपाहुड' को 'दंसणसार', 'सुत्तपाहुड' को 'सुत्तसार', 'बोधपाहुड को बोधसार', चरित्तपाहुड को चरित्तसार, भाव पाहुड को भावसार, मोक्खपाहुड को मोक्खसार, लिंगपाहुड को लिंगसार और सीलपाहुड को 'सीलसार' नाम हो जाना चाहिए था- जैसा कि नहीं हुआ। इसी भाँति आचार्य श्री गुणधर कृत 'कसायपाहुड' का नाम भी 'कसायसार' हो गया होता। प्राकृतकोष ‘पाइअसद्दमहण्णव' में पाहुड' शब्द के अर्थ इस भांति दिए हैं'जैन ग्रंथांशविशेष, परिच्छेद, अध्ययन, प्रामृत का भी एक अंश। इस प्रकार पाहुड और 'सार' दोनों में कोई साम्य नहीं बैठता जो कि एक दूसरे का प्रतिनिधित्व कर सकें। फिर ये नाम परिवर्तन कैसे हुआ? यह विचारणीय है। हमें स्मरण है कि पहिले कभी पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' का अनुवाद कर उसे 'समीचीन धर्मशास्त्र' के नाम से छपवा दिया था- तब किसी ने बड़ा भारी विरोध किया था। जबकि स्वामी समन्तभद्र ने ग्रन्थ में स्वयं “समीचीन धर्म' कहने की बात कही थी 'देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणम्।'-पर “समयपाहुड में तो 'समयसार' नामकरण का कहीं प्रसंग ही नहीं आया। जहाँ भी 'समय' शब्द का उल्लेख है, वहाँ 'आगम, पदार्थ और काल के भाव में है। समय का अर्थ आत्मा है ऐसा कोष में भी शायद ही हो? फिर समय शब्द का अर्थ आत्मा कैसे किया जाने लगा?

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