Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 51
________________ अनेकान्त/8 इस प्रकार मोक्षमार्गरूप सम्यग्यदर्शन, सम्यग्यज्ञान और सम्यक् चारित्र जो व्यवहार नयोपदिष्ट हैं और उन्हीं को जान कर योगी सुख को प्राप्त करता है और इन्हीं की साधना करके मलपुंज (कर्म समूह) का क्षय करता है। यहां विचारणीय यह है कि उक्त गाथा 11 की जो संस्कृत छाया की गई है उसमें 'भूदत्थो' को 'अभूतार्थो' कैसे कर दिया गया? और अमृतचन्द्र जैसे मेधावी आचार्य ने उसे स्वीकार करते हुए तदनुसार ही अपनी टीका में उसके अर्थ को कैसे अभिव्यक्त किया? जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया और इस प्रकार विपरीतार्थ हो जाने से परवर्ती समय में व्रत, तप, समिति, गुप्ति आदि को व्यवहार मान कर उनको महत्वहीन कर दिया गया जिससे हमारे चारित्र पर प्रबल कुठाराघात हुआ है। और तो क्या कहें? परवर्ती हिन्दी व्याख्याकारों ने 'भरतजी घर में वैरागी' कह कर और घर में वैरागी होने का उपदेश देकर वैराग्य के उत्पन्न होने पर जैनधर्मोपदिष्ट चारित्र की परम्परा गृहत्याग की अनिवार्यता ही समाप्त कर दी। अदृश्यमान निश्चय चारित्र की दुहाई देने वाले आध्यात्म गेषक श्रावक बन्धुओं ने निश्चय-व्यवहार चारित्र की युगपत् घोषणा करते हुए भी अव्रती श्रावको को सर्वोच्च पद देकर, श्रावक के प्रतिमा रूप व्रतों को व्यवहारचारित्र मानकर तिलांजलि दे दी। साथ ही साथ व्यवहार चारित्र के पोषक गहत्यागी श्रावकों का मन्दिर आदि धार्मिक एवं सार्वजनिक (धर्मशाला आदि) स्थानों की बजाय सम्पन्न श्रावकों के यहां निवास करना रुढ हो गया है। इससे प्रायः हमारे चतुर्विध संघ में शिथिलाचार को बढ़ावा मिला है। आचार्यों, विचारकों एवं विद्वानों से मेरी विनम्र विनती है कि इस विषय में गम्भीरतापूर्वक चिन्तन और मनन करें तथा समाज में बढ़ रहे शिथिलाचार को रोकने का प्रयास करें। यह मेरा प्रथम प्रयास है। इसमें यदि कोई त्रुटि हुई हो तो मैं उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं। मेरी मूल भावना यही है कि आगम के मूलपाठ की संस्कृत छाया से जो भ्रान्ति उत्पन्न हुई है उसका निराकरण हो और व्यवहार नय को तथ्य मानकर तदनुरूप चारित्र का अनुपालन किया जाय, ताकि "आचारो प्रथमः धर्मः" की पुष्टि हो सके। सन्दर्भ रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसमास परिणाम। जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।। -नियमसार, गाथा 57. पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं। परिचत्ता स परहिदं भासा समिदि वदंतस्स।। -नियमसार, गाथा 62. जह्या णएण विणा होइ ण णरस्स सियवाय पडिवती। तह्मा सो बोहब्बो एयंतं हतुकामेण।। नयचक्र, गाथा 174.

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