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अनेकान्त/7 नयचक्र में बतलाया गया है कि नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नहीं हो सकता। इसलिए जो एकान्त का विरोध करना चाहता है उसे नय को अवश्य जानना चाहिये। ___ यह सुस्पष्ट है कि सम्पूर्ण जैन दर्शन और समस्त जैन सिद्धान्त नयों पर आधारित है। नय के विषय में कहा गया है कि श्रुतज्ञान का आश्रय लिए हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं । अतः वस्तु सत् है चाहे वह किसी भी दशा में हो, उसका ज्ञान करानेवाला नय सत्यार्थ ही होगा।
आगमानुसार मूल नय सात होते हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ तथा एवंभूतः । इनमें प्रथम तीन नय (नैगम, संग्रह और व्यवहार) द्रव्यार्थिक नय हैं और शेष चार नय पर्यायार्थिक हैं। इस प्रकार व्यवहार नय मूलनय है और द्रव्यार्थिक भी है, अतः वह असत्यार्थ कैसे हो सकता है? इसके विपरीत शुद्ध नय एवं निश्चय नय मूल नहीं हैं। ये नय किस नय की शाखा या भेद हैं-यह विचारणीय
इस विषय में एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वयं व्यवहार नय भी दो प्रकार का है-अशुद्ध व्यवहार और शुद्ध व्यवहार। इससे स्पष्टतः ध्वनित होता है कि शुद्ध नय जिसे आचार्य कुन्दकुन्द ने समय पाहुड की ग्यारहवीं गाथा में कहा है (देसिदो दु सुद्धणओ) व्यवहार का ही भेद है, वह व्यवहार से अतिरिक्त नहीं है और असत्यार्थ भी नहीं है। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं कहा है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना अशक्य है। अतः सम्पूर्ण जिनोपदेश व्यवहारमय है। उसको असत्यार्थ कहना क्या जिनवाणी पर लांछन नहीं
इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द की निम्न गाथा भी दृष्टव्य है
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। अर्थात ज्ञानी को दर्शन, ज्ञान चारित्र का उपदेश व्यवहार से दिया जाता है।
साधु के द्वारा दर्शन, ज्ञान और चारित्र का नित्य सेवन किया जाना चाहिये जैसा कि समय पाहुड की गाथा 16 में प्रतिपादित है।
व्यवहार से प्रतिपादित दर्शन, ज्ञान और चारित्र को वचन का सार निरूपित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार के जीवाधिकार में कहते हैं कि नियम से जो करने योग्य है वह नियम है और ऐसा नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इससे विपरीत अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का परिहार करने के लिए 'सार' यह वचन कहा गया है।
नियम का फल बतलाते हुए आचार्य कहते हैं कि नियम अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और और सम्यकचारित्र मोक्ष का उपाय है और उसका फल परम निर्वाण
है।