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अनेकान्त/26 से डरकर जो जो उन्हें आहार दिया जाता है, वह आछेद्य दोष है, क्योंकि वह कुटुम्बियों को भयभीत करने वाला है।।
16. अनीशार्थ-अनीश अर्थात् अप्रधान, अर्थ अर्थात् कारण है जो ओदनादिक भोज्य पदार्थ का, वह भोजन अनीशार्थ है। उस भोजन के ग्रहण करने में जो दोष है, वह भी अनीशार्थ है। यह ईश्वर और अनीश्वर के भेद से दो प्रकार
ईश्वर दोष के चार भेद हैं-सारक्ष, व्यक्त अव्यक्त और संघाटक। जो आरक्षों के साथ रहे वह सारक्ष है। वह यद्यपि दान देना चाहता है, फिर भी नहीं दे पाता, क्योंकि अन्य अमात्य, पुरोहित आदि विघ्न करते हैं। यदि ऐसा दान मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके अनीशार्थ ईश्वर का प्रथम भेद रूप है । व्यक्त अर्थात् प्रेक्षापूर्वकारी या बुद्धि से कार्य करने वाला व्यक्ताव्यक्त रूप पुरूष संघाटक है।
जिस दान का अप्रधान (अनीश्वर) पुरूष हेतु होता है, वह दान अनीश्वर अनीशार्थ है । यह व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक के भेद से तीन प्रकार का है। अनीश्वर दान आदि का स्वामी नहीं होता, किन्तु प्रेक्षापूर्वकारी अर्थात् बुद्धिमान के द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं, तो उनके व्यक्त अनीश्वर अनीशार्थ दोष होता है। अव्यक्त अर्थात् अबुद्धिमान के द्वारा दिया गया आहार, मुनि के लेने पर अव्यक्त अनीश्वर अनीशार्थ दोष है। इसी प्रकार संघाटक अर्थात् व्यक्ताव्यक्त संघाटक अनीश्वर नामक अनीशार्थ है।
(2) उत्पादन दोष-मार्ग विरूद्ध जिन क्रियाओं से भोजन आदि बनाये जाते हैं, वह उत्पादन दोष 16 प्रकार का है:-- वे इस प्रकार हैं-धात्री, दूत, निमित्त,
आजीव, वपीनक, चिकित्सा, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, पूर्वस्तुति, पश्चात् स्तुति, विद्या, मंत्र, चूर्णयोग और मूल कर्म
1. धात्री दोष -बालक का पालन-पोषण करने वाली धात्री कहलाती है। मार्जन धात्री, मण्डन धात्री, क्रीड़नधात्री, क्षीरधात्री और अम्बधात्री के भेद से धात्री के पांच भेद हैं-मार्जन धात्री-बालक को स्नान कराने वाली, मण्डन धात्री-तिलक आदि तथा आभूषण आदि से बालक को भूषित करने वाली, क्रीड़न धात्री-बालक को खेल खिलाने वाली, क्षीर धात्री-बालक को दूध पिलाने वाली, अम्ब धात्री-जन्म देने वाली अथवा सुलाने वाली । जो साधु इन पॉच प्रकार की धात्री की क्रिया करके आहार आदि उत्पन्न करते हैं, उनको धात्री नाम का दोष लगता है।
2. दूत-स्वग्राम से परग्राम में स्वदेश से परदेश में, जल, स्थल या आकाश से जाते समय किसी के सम्बन्धी के वचनों को ले जाना, दूतदोष होता है। 1. मू. आ. गा. 443, 2 मू. आ.गा. 444 3. भ. आ. 232 की वि. पृ. 246 मू. आ. गा. 445-446 4. भ. आ. गा. 232 की वि. . मू. आ. 447 5. जलथलआयासगढ़ सयपरगामे सदेसपरदेसे।
संबधिवयणणयणं दूटीदोषो हवादि एसो।। मू. आ. गा. 448