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अनेकान्त/24
5. स्थापित-पकाने वाले बर्तन से अन्य बर्तन मे निकाल कर अपने या अन्य घर में रखना स्थापित दोष है।
6. बलि-यज्ञ, नागादि देवताओं के लिए जो बलि (पूजन) किया हो उससे शेष बचा भोजन बलि दोष युक्त है। अथवा संयतों के आने के लिए बलिकर्म (सावद्य पूजन) करना बलिदोष है।
7. प्राभृत-इस दोष को प्रावर्तित दोष भी कहते हैं, क्योंकि इसमें काल और वृद्धि से परिवर्तन किया जाता हैं बादर और सूक्ष्म के भेद से प्राभृत दो प्रकार का है। काल की वृद्धि और हानि के अपेक्षा इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं।
दिवस, पक्ष, महीना और वर्ष का परावर्तन करके आहार देने से बादर दोष दो प्रकार का है जैसे-शुक्ल अष्टमी में जो आहार देने का संकल्प था उसका अपकर्षण (घटाकर) करके शुक्ल पञ्चमी को देना तथा शुक्ल अष्टमी को देना आदि।
इसी प्रकार पूर्व, अपर, मध्य की बेलाका परावर्तन करके देने से सूक्ष्म दोष के भी दो प्रकार हैं-जैसे-अपराह बेला में देने योग्य ऐसा कोई मंगल प्रकरण था, किन्तु संयत के आगमन आदि के कारण से उस काल का अपकर्षण करके पूर्वाह बेला मे आहार दे देना, वैसे ही मध्याह में देना था, किन्तु पूर्वान्ह अथवा अपरान्ह में दे देना। इस प्रकार सूक्ष्म प्राभृत दोष काल की हानि-वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार का हो जाता है।
8. प्रादुष्कार--संक्रमण और प्राशन के भेद से प्रादुष्कार नामक दोष दो प्रकार का होता है। बर्तन या भोजन आदि को एक स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना संक्रमण है तथा बर्तनों को भस्मादि से मांजना या जल आदि से धोना अथवा बर्तन आदि को फैलाकर रखना प्रकाशन है। इसी प्रकार मण्डप आदि खोल देना, दीवाल आदि को लीप पोतकर साफ करना, दीपक जलाना, ये सब प्रादुष्कार नाम का दोष है। अनगार धर्मामृत में प्रादुष्कार के भेदों को इस प्रकार कहा गया हैसाधु के घर में आ जाने पर भोजन पात्रों को एक स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना संक्रम नामक प्रादुष्कार दोष है तथा साधु के घर आ जाने पर चटाई, कपाट, पर्दा आदि हटाना, बर्तनों को मांजना, दीपक जलाना आदि प्रकाश प्रादुष्कार दोष
1. पागादु भायणाओ अण्णाि य भायणारिपक्वविय।
सघरे वा परघरे वाणिहिदं ठविद वियाणाहि।। वही गा. 430 2 मू. आ. गा 431 3 वही गा. 4322-433 वृत्ति सहित 4. पादुक्कारो दुविहो सकमण पयासणा यो धब्बो। ___ भायणभोयणदीण मडवविरलादिय कमसो।। मू. आ. 434 वृत्ति सहित 5. अन. धर्मा. 5/13