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अनेकान्त/12 जाती है। इससे विघ्न बाधाएं एवं अनेक आपत्तियाँ एवं विपत्तियां भी स्वयमेव टल जाती हैं-जैसी कि स्वामी समन्तभद्र, आचार्य, मानतुंग,वादिराज धनंजय आदि संतों और भक्तजनों की देखी गई हैं।
भगवानभक्ति मे तल्लीनता के समय प्रायः सांसारिक सभी प्रकार के संकल्प विकल्पों के दूर हो जाने से भक्तजनों को जो अलौकिक शांति एवं आनंदानुभूति हुआ करती है उसका तो कहना ही क्या ? स्वानुभूतिगम्य होने से वह वस्तुतः अनिर्वचनीय ही हुआ करती है।
यद्यपि भगवद्भक्ति करते समय भक्त में विद्यमान शुभ राग के अंशों द्वारा उसे पुण्यानुबंधी पुण्य कर्मों का संचय भी होता है, किन्तु उस समय मुमुक्षु भक्त का उद्देश्य एवं भावना अपनी दीन-हीन संसार दशा का नाश करके वीतरागता आत्मसात कर मुक्ति प्राप्त करने की ही रहा करती है। जैसे किसान अनाज की प्राप्ति के लिए खेती करता है तो भूसा स्वयं प्राप्त हो जाता है। भूसे के समान प्राप्त वह पुण्य कर्म भी दुर्गति के दुखों से बचाकर सदगति प्राप्त करने में सहायक होता है-जिससे वह उत्तमदेव या मनुष्यभव पाकर पुनः मुक्ति पथ पर अग्रसर होने का पात्र बन जाता है। अतः आचार्यों ने इस पुण्यास्रव को कथंचित् परंपरा मुक्ति पथ प्राप्त करने का साधन मान व्यवहार धर्म के नाम से निरूपण किया है तथा जब तक निश्चय धर्म की प्राप्ति न हो जो कि आत्मलीनतामयी शुद्धोपयोग है-तब तक व्यवहार धर्म का रूचिपूर्वक सेवन करते रहने का विधान भी किया है।
भक्ति विषयक भ्रामक प्रचार आधुनिक युग में कुछ प्रवचनकार निश्चय के पक्षपाती बन पात्र अपात्र का ध्यान न रख जन साधारण में अपने प्रवचनों द्वारा यह भ्रम फैला रहे हैं कि व्यवहार धर्म (भगवत्भक्ति आदि) हेय हैं। हमारी आत्मा (त्रिकाल शुद्ध) सिद्ध भगवान् के समान है। भक्ति करने से बंध होता है। और बंध संसार परिभ्रमण का कारण है अतः पूजनदानादि से लाभ नहीं हैं। पुण्य से बचना चाहिए आदि। यह एंकांतिक उपदेश केवल मुनिराजों को नहीं, प्रत्युत जन साधारण को दिया जाता है-जिन्होंने पाप भी नहीं छोड़ा उन्हें पुण्य को हेय बताकर छुड़ाने (पुण्य से दूर रहने) की प्रेरणा की जा रही है। इनके इन प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक सज्जन अपने को सिद्ध भगवान के समान सर्वथा शुद्ध बुद्ध निरंजन निर्विकारमान पूजनपाठ से विरक्त होकर उनका त्याग भी कर चुके हैं जबकि प्रवचनकार स्वयं रागी द्वेषी अव्रती बने संसार के कर्म बंधन में पड़े दुखी भी हो रहे हैं और जबकि विषयानुराग जो संसारपरिभ्रमण का कारण है और धर्मानुराग एवं धर्म क्रियाएँ-जो संसार परिभ्रमण का कारण न होकर परंपरा से मुक्तिमार्ग के साधन हैं। अतः इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। अतः पवित्र साधनों से ही विशुद्धसाध्यों की सिद्धि संभव