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अनेकान्त/21 आहार ग्रहण करने योग्य-अयोग्य घर-देशाभिघट और सर्वाभिघट की अपेक्षा से अभिघट दो प्रकार हो होता है। उनमे देशाभिघट आचिन्न ओर अनाचिन्न दो प्रकार का है1- सरल पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आयी हुई वस्त आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है, और इनसे अतिरिक्त घरों से आयी हुई वस्तु अनाचिन्न अर्थात् ग्रहण न करने योग्य है। क्योंकि उनमे दोष देखा जाता हैं। सर्वाभिघट के चार भेद हैं- स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश, परदेश।
भगवती-आराधना' में कहा है कि साधु को बड़े, छोटे और मध्यम कुलों में एक समान भ्रमण करना चाहिए। जिस घर में गाना, नाचना होता हो, झंण्ड़ियाँ लगी हों, मतवाले लोग हों, शराबी वेश्या लोकनिन्दित कुल, यज्ञशाला, दानशाला, विवाहवाला घर जिस घर में प्रवेश वर्जित हो, आगे रक्षक खड़ा हो, प्रत्येक व्यक्ति न जा सकता हो, ऐसे घरों में नहीं जाना चाहिए। दरिद्र कुलों और आचरणहीन सम्पन्न कुलों में प्रवेश नहीं करना चाहिए, लेकिन जहाँ बहुत से मनुष्यों का आना-जाना हो, जीव-जन्तुओं से रहित, अपवित्रता रहित, दूसरों के द्वारा रोक-टोक से रहित तथा आने जाने के मार्ग से रहित स्थान में ग्रहस्थों के द्वारा प्रार्थना करने पर ठहरना चाहिए।
साधु के योग्य आहार-शुद्धि-उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम, और कारण इन आठ दोषों से रहित आठ प्रकार की पिण्ड शुद्धि होती है । जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से शुद्ध हो, व्यालीस दोषों से रहित हो, संयोजना से हीन हो, प्रमाण सहित हो, विधिपूर्वक अर्थात् नवधा भक्ति तथा सात गुणों से युक्त दाता के द्वारा दिया गया हो। अनगार और धूम दोषों से रहित हो, छह कारणों से युक्त हो, क्रम विशुद्ध हो, जो प्राणों के धारण के लिए अथवा मोक्ष-यात्रा के साधन का निमित्त हो, तथा नख, रोम, जन्तु, हड्डी, कण, कण्ड, पीव, चर्म, रुधिर, मांस, बीज फल, कंद और मूल इन चौदह मल दोषों से रहित हो, ऐसा भोजन साधु को ग्रहण करना चाहिए। श्रमण के उद्देश्य से बनाया गया भोजन औद्देशिक कहलाता है। अधःकर्म आदि के भेद से उसके सौलह भेद हैं। साधु को इसका त्याग करना चाहिए। कल्प-सूत्र में कहा है-प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों के तीर्थ में सोलह प्रकार के उद्देश्य का परिहार करके
1. मू. आ. गा. 438, 2. वही गा. 439, 3. वही गा. 440, 4. भ. आ. गा. 1200 की वि. 5. मू. आ. गा. 421 6. णवकोडीपरिसुद्ध असण बादालदोसपरिहीव।
सजोजणाय हीणं पमाणसहिय विहिसुदिण्णं ।। मू.अ.गा. 482 विगदिगाल विधूम छक्कारणसंजदु कमविसुद्ध । जत्तासाधणमेत्तं चोछसमलविज्जदं भुजे।। वही गा. 483 णहरीमजतुअट्ठी कणकुडयपूयचम्रूहिरमसाणि। बीयफलकंद मूला छिण्णाणि मला चद्दसा होति।। वही गा. 484