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जैन संत रत्नकीर्ति : जीवन एवं साहित्य
ले०-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, एम. ए. पी. एच. डो. वह विक्रमीय १७वीं शताब्दी का समय था। भारत एवं आयुर्वेद आदि विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन कराया। में बादशाह अकबर का शासन होने से अपेक्षाकृत शान्ति शिष्य व्युत्पन्नमति था। अतः शीघ्र ही उसने उन पर थी किन्तु बागड़ एवं मेवाड़ प्रदेश में राजपूतों और मुसल- अधिकार कर लिया। अध्ययन समाप्त कराने के बाद मानी शासकों में अनबन रहने के कारण सदैव ही युद्ध का अभयनन्दि ने उसे अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया। खतरा तथा धार्मिक संस्थानों एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के नष्ट ३२ लक्षणों एवं ७२ कलाओं से सम्पन्न विद्वान् युवक को किए जाने का भय बना रहता था। लेकिन बागड़ प्रदेश कौन अपना शिष्य बनाना नहीं चाहेगा । संवत् १६४३ में में भ० सकलकीत्ति ने १५वीं शताब्दी में धर्म एवं एक विशेष समारोह में उसका पट्टाभिषेक भी कर दिया साहित्य प्रचार की जो लहर फैलाई थी वह अपनी चरम गया और उसका नाम रत्नकीर्ति रखा गया। रत्नकीर्ति, सीमा पर थी। यद्यपि उस लहर को प्रचलित हुए सौ इस पट्ट पर संवत् १६५६ तक रहे। इसलिए इनका काल वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो गया था फिर भी लगभग संवत् १६०० से १६५६ तक का माना जा उसमें धार्मिक वातावरण के अतिरिक्त जनसाधारण के सकता है। हृदयों में उत्साह और वात्सल्य का प्रवर्तन एक प्रकार
युवाकाल का प्रोत्तेजन दे रहा था, परिणामस्वरूप चारों ओर नयेनये मन्दिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा विधानों की भरमार
सन्त रत्नकीति उस समय पूर्ण युवा थे। उनकी थी। भट्टारकों, मुनियों, एवं सन्तों का यत्र-तत्र विहार
शारीरिक सुन्दरता देखते ही बनती थी। जब वे धर्म होता रहता था और वे अपने सदुपदेशों द्वारा जन-मानस
प्रचार के लिए विहार करते थे, तो उनके अनुपम सौदर्य को पवित्र किया करते थे। गृहस्थों की उनके प्रति अगाध
एवं विद्वत्ता से सभी मुग्ध हो जाते थे। तत्कालीन विद्वान्
गणेश कवि ने भ. रत्नकीत्ति की प्रशंसा करते हए किखा श्रद्धा थी। जहां उनके चरण पड़ते थे वहां वे अपनी पलकें। बिछाने को तैयार रहते थे। ऐसे ही वातावरण में घोधा नगर के हैबड जातीय श्रेष्ठी देवीदास के यहां एक बालक
अरध शशिसम सोहे शुभ भाल रे। का जन्म हुआ। माता सहजलदे विविध कलाओं से युक्त
वदन कमल शुभ नयन विशाल रे॥ बालक को पाकर फूली नहीं समायी। बचपन में उसको
दशन दाडिम सम रसना रसाल रे। किस नाम से पुकारा जाता इसका कहीं कोई उल्लेख नही
अधर बिंबाफल विजित प्रवाल रे ॥१॥ मिलता। वह बालक बड़ा होनहार था "होनहार विरवान
कंठ कंबूसम रेखात्रय राजे रे । के होत चीकने पात" वाली कहावत उसमें पूरी तरह
कर किसलय-सम नख छवि छाजे रे । चरितार्थ हो रही थी। बड़ा होने पर वह विद्याध्यन करने वे जहां भी विहार करते सुन्दरियाँ उनके स्वागत में लगा।
विविध गीत गाती । ऐसे ही अवसर पर गाये हुये गीत का शिक्षा और पद प्राप्ति
एक भाग देखिएएक दिन उसका भट्टारक अभयनन्दि से साक्षात्कार कमल वदन करुणालय कहीये, हो गया। वे उसकी योग्यता तथा वाक् चातुर्यसे प्रभावित कनक वरण सोहे कांत मोरी सहीये । होकर बड़े प्रसन्न हुये और उसे अपना शिष्य बना लिया। कमल दल लोचन पापना मोचना, भ० अभयनन्दि ने उसे सिद्धान्त, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष
कलाकार प्रगटो विख्यात मोरी सहीये ।