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छिपे हुए सत्य का उद्घाटन करने के लिए दृष्टि चाहिए और उद्घाटित सत्य को गतिशील करने के लिए भावना । हृदय और मस्तिष्क, दोनों कर्म-विद्युत के दो तार हैं। दोनों के मिलते ही जीवन में कर्म का प्रकाश जगमगाने लगता है।
थोथा चना, बाजे घना मैं देखता हूँ, मैं ही क्या प्राय: सभी देखते हैं कि मूर्ख अपने पांडित्य की लंबी-चौड़ी दुहाई दे रहे हैं, और कुछ आचारहीन लोग उत्कृष्ट एवं उद्दीप्त आचार के लिए बहुत अधिक शोरोगुल कर रहे हैं। ऐसा क्यों है ? मनोविज्ञान का यह सुप्रसिद्ध सूत्र है कि हीन भावना के कारण ऐसा होता है। जिसका अभाव होता है, मनुष्य उसके लिए अधिक प्रदर्शन करता है । दरिद्र माँगे हुए अलंकारों से अपने अहं की तृप्ति करता है । कुरूप कुछ अधिक बन ठन कर रहता है। नकली सोना अधिक चमकता है। बच्चे के प्रति माँ से ज्यादा प्यार करने का तमाशा डायन ही करती है। धर्म-शील की अपेक्षा शैतान धर्म-ग्रन्थों का हवाला अधिक देता फिरता है। यह सत्य आज का नहीं, प्राचीन काल का है। एक आचार्य ने कहा है : “कुलटा स्त्री लज्जा का अधिक नाटक करती है। खारा पानी अधिक शीतल होता है। धूर्त व्यक्ति जरूरत से ज्यादा मीठा बोलता है और दंभी एवं पाखण्डी धर्म-धूर्त आचार-विचार के विवेक का अधिक दिखावा करता है।" कहावत आज भी है-'थोथा चना बाजे घना।'
आलोचना का शुद्ध रूप आलोचना अपने में कोई बुरी बात नहीं है । आलोचना के मूल में यदि घृणा नहीं है, व्यर्थ ही किसी को चिढ़ाने का विचार नहीं है, एकमात्र भूल-सुधार की एवं शुद्ध निर्माण की दृष्टि ही है, तो वह सामाजिक जीवन के लिए वरदान है। आलोचना के बिना व्यक्ति, संस्था या संघटन शिथिल हो जाते हैं, कर्तव्य के प्रति उदासीन हो जाते हैं । आलोचना वह चाबुक है, जो आलोच्य की शिथिलता दूर अमर डायरी
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