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जो छह द्रव्य स्वतः ही अपनी सादि और अनादि पर्यायों से जो उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यरूप हैं बर्त रहे हैं, अस्तित्व बनाये रहते हैं, उस वर्तन को ही 'वर्तना' कहा जाता है। 65
वर्तना व परिणाम में सूक्ष्म अन्तर भी किया जा सकता है। जहां द्रव्य - पर्यायें 'परिणाम' हैं, " वहां उन सूक्ष्म पर्यायों में होने वाला सद्रूप परिणमन 'वर्तना' है। 67 पं. राजमल्ल जी के शब्दों में द्रव्यों में उनके अपने रूप से होने वाले 'सत्परिणमन' का नाम 'वर्तना' है। दूसरे शब्दों में, जीवादि छहों द्रव्यों का अस्तित्व रूप (उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक) जो स्वात्मपरिणमन है, वह 'वर्तना' है। इस वर्तना में उपादान कारण तो तत्तद् द्रव्य है और उदासीन, अप्रेरक, निष्क्रिय कारण 'काल' द्रव्य है। 68
'क्रिया' भी परिणाम, भाव या सत्ता का ही एक रूप है। 69 द्रव्य का परिस्पन्दात्मक परिणमन उसकी 'क्रिया' है, जब कि अपरिस्पन्दात्मक (पर्याय) मात्र 'परिणाम' हैं। 70 प्रदेश- चलनात्मक योग्यता का नाम 'क्रिया' है और परिणमनशील योग्यता का नाम ‘भाव' या 'परिणाम' है। किन्तु परिस्पन्दात्मक परिणमन मात्र जीव व पुद्गल इन दोनों में ही होता है। अत: क्रियारूप योग्यता जीव व पुद्गल इन दोंनों में ही मानी गई है। 71 जीव व पुद्गल में भाव रूप योग्यता तथा क्रियारूप योग्यता दोनों हैं, किन्तु धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों में मात्र परिणमनशील योग्यता ही है। 72
द्रव्यों के निष्क्रिय व सक्रिय इन विभागों की पृष्ठभूमि में विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने देशान्तर - प्राप्ति का हेतुभूत जो पर्याय / परिणमन है, उसे क्रिया कहा है। 73 उक्त परिस्पन्दात्मक क्रिया धर्म व अधर्म में नहीं है, इसलिए उन्हें निष्क्रिय माना गया है। वास्तव में परिणाम-लक्षण क्रिया तो धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों में भी रहती है। 74
आचार्य विद्यानन्द के मत में 'परिणाम' भी क्रियारूप ही है- 'परिणामलक्षणया क्रिया' 175 अत: इस दृष्टि से धर्म, अधर्म ही नहीं, अपितु कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जो क्रियारहित हो, क्योंकि परिणमन सभी द्रव्यों का स्वभावभूत धर्म है (सर्वस्य वस्तुनः परिणामित्वात्")। वस्तु में प्रतिक्षण उत्पाद आदि क्रिया यदि न हो तो वस्तु का वस्तुत्व ही निरस्त हो जाएगा। आ. विद्यानन्द के शब्दों में “भले ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल-इन निष्क्रिय द्रव्यों में परिस्पन्द-लक्षण क्रिया न हो, तथापि प्रतिक्षण उत्पाद आदि 'परिणतिरूप क्रिया' तो होती है, अन्यथा उनके अस्तित्व को ही नकारना होगा।
इत्यपास्तं परिस्पन्द- क्रियायाः प्रतिषेधनात् । उत्पादादिक्रियासिद्धेः, अन्यथा सत्त्वहानितः ।। 77
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