________________ न चेतन से अचेतन उत्पन्न होता है और न अचेतन से चेतन। इस दृष्टि से जगत अनादि अनन्त है। यह परिभाषा द्रव्यस्पर्शी नय के अाधार पर है। रूपान्तरस्पर्शी नय की दृष्टि से जगत् सादि सान्त भी है। यदि द्रव्यदृष्टि से जीव अनादि-अनन्त हैं तो एकेन्द्रिय, द्रीन्द्रिय आदि पर्यायों की दृष्टि से वह सादि सान्त भी हैं। उसी प्रकार अजीव द्रव्य भी अनादि अनन्त है / पर उसने भी प्रतिपल-प्रतिक्षा परिवर्तन होता है। इस तरह अवस्था विशेष की दृष्टि से वह सादि सान्त है / जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभिमत है कि असत् से सत् कभी उत्पन्न नहीं होता / इस जगत् में न कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जो द्रव्य जितना वर्तमान में है, वह भविष्य में भी उतना ही रहेगा और अतीत में भी उतना ही था / रूपान्तरण की दष्टि से ही उत्पाद और विनाश होता है। यह रूपान्तरण ही सृष्टि का मूल है। अजीव द्रव्य के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय, क्रमशः गति, स्थिति, अवकाश, परिवर्तन, संयोग और वियोगशील तत्त्व पर प्राधत हैं। मूतं और अमूर्त का विभाग शतपथब्राह्मण 304, बहदारण्यक 305 और विष्णपुराग301 में हुआ है। पर जैन आगम-साहित्य में मूत और अमुर्त के स्थान पर रूपी और प्ररूपी शब्द अधिक मात्रा में व्यवहृत हुए हैं। जिस द्रव्य में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श हो वह रूपी है और जिम में इनका अभाव हो, वह अरूपी है / पुद्गल द्रव्य को छोड़कर शेष चार द्रव्य ग्ररूपी हैं। 300 अरूपी द्रव्य जन सामान्य के लिए अगम्य हैं। उनके लिए केवल पुद्गल द्रव्य गम्य है। पुदगल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये चार प्रकार है। परमाणु पुद्गल का सबसे छोटा विभाग है। इससे छोटा अन्य विभाग नहीं हो सकता। स्कन्ध उनके ममुदाय का नाम है। देश और प्रदेश ये दोनों पुद्गल के काल्पनिक विभाग हैं। पुद्गल को वास्तविक इकाई परमाणु है / परमाणु रूपी होने पर भी सूक्ष्म होते हैं। इसलिए वे दृश्य नहीं हैं / इसी प्रकार सूक्ष्म स्कन्ध भी दृग्गोचर नहीं होते। आगम-साहित्य में परमाणुओं की चर्चा बहुत विस्तार के साथ की गई है। जैनदर्शन का मन्तव्य है-... विराट विश्व में जितना भी सांयोगिक परिवर्तन होता है, वह परमाणुओं के आपसी संयोग-वियोग और जीवपरमाणुनों के संयोग-वियोग से होता है। 'भारतीय संस्कृति' ग्रन्थ में शिवदत्त ज्ञानी ने लिखा है-'परमाणुवाद वैशेषिक दर्शन की ही विशेषता है। उसका प्रारम्भ-प्रारम्भ उपनिषदों से होता है। जैन आजीवक आदि के द्वारा भी उसका उल्लेख किया गया है। किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया।"30८ पर शिवदत्त ज्ञानी का यह लिखना पूर्ण प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि उपनिषदों का मूल परमाणु नहीं, ब्रह्मविवेचन है। डॉ. हर्मन जैकोबी ने परमाणु सिद्धान्त के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है.---'हम जैनों को प्रथम स्थान देते हैं, क्योंकि उन्होंने पुदगल के सम्बन्ध में अतीव प्राचीन मतों के आधार पर अपनी पद्धति को संस्थापित किया है / 30% हम यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही यह बताना चाहते हैं कि अजीव द्रव्य का जैमा निरूपण जैन दर्शन में व्यवस्थित रूप से हया है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं हया। 304. शतपथब्राह्मण 14 / 5 / 3 / 1 305. बृहदारण्यक 2 / 3 / 1 306. विष्णुपुराण 307. उत्तराध्ययन सूत्र 36 / 4 305. भारतीय संस्कृति, पृष्ठ 229 309. एन्साइक्लोपीडिया अॉफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, भाग 2, पृष्ठ 199-200 [87] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org