________________ 8 ] [ उत्तराध्ययनसूत्र जैसे-उठने के लिए आसन की पकड़ ढीली करना, घड़ी की ओर देखना या जम्भाई लेना आदि / ' इन दोनों को सम्यक् प्रकार से जानने वाला सम्प्रज्ञ / इसका 'सम्पन्न' रूपान्तर करके युक्त अर्थ भी किया गया है, जो यहाँ अधिक संगत नहीं है। यह विनीत का तीसरा लक्षण है / अविनीत दुःशील का निष्कासन एवं स्वभाव 4. जहा सुणी पूइ-कण्णो, निक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सील-पडिणोए, मुहरी निक्कसिज्जई // [4] जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया [घृणापूर्वक सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल प्राचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्व जगह से [अपमानित कर के] निकाल दिया जाता है / 5. कण-कुण्डगं चइत्ताणं, विट्ठे भुजइ सूयरे / एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए॥ [5] जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़ कर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार अज्ञानी (मृग = पशुबुद्धि) शिष्य शील (सदाचार) को छोड़कर दुःशील (दुराचार) में रमण करता है। विवेचन दुस्सील--जिसका शील-स्वभाव, समाधि या आचार रागद्वषादि दोषों से विकृत है, वह दुःशील कहलाता है।३ / मुहरी-शब्द के तीन रूप—मुखरी, मुखारि और मुधारि / मुखरी-वाचाल, मुखारि—जिसका मुख [जीभ] दूसरे को अरि बना लेता है, मुधारि-व्यर्थ ही बहुत-सा असम्बद्ध बोलने वाला। सव्वसो निक्कसिज्जइ–दो अर्थ—सर्वतः एवं सर्वथा / सर्वतः अर्थात्-कुल, गण, संघ, समुदाय, प्रादि सब स्थानों से, अथवा सर्वथा--बिलकुल निकाल दिया जाता है। कणकुडगं-दो अर्थ--चावलों की भूसी अथवा चावलमिश्रित भूसी, पुष्टिकारक एवं सूअर का प्रिय भोजन / मिएका शब्दश: अर्थ है—मृग। बृहद्वत्तिकार का प्राशय है-अविनीत शिष्य मृग की तरह अज्ञ (पशुबुद्धि) होता है / जैसे----संगीत के वशीभूत होकर मृग छुरा हाथ में लिये बधिक कोअपने मृत्युरूप अपाय को नहीं देख पाता, वैसे ही दुःशील अविनीत भी दुराचार के कारण अपने भवभ्रमणरूप अपाय को नहीं देख पाता। 1. इंगितं निपुणमतिगम्यं प्रवृत्ति-निवृत्तिसूचकं ईषद्धृ शिर:कम्पादिः, आकार:-स्थलधीसंवेद्यः प्रस्थानादि-भावाभिव्यंजको दिगवलोकनादिः / -बृहद्वृत्ति, पत्र 44 2. (क) सम्प्रज्ञः सम्यक् प्रकर्षण जानाति----इंगिताकारसम्प्रज्ञः / -बृहद्वृत्ति पत्र 44 (ख) सम्पन्नः युक्तः, सम्पन्नवान् सम्पन्नः / –सुखधोधा. पत्र 1, उत्त. चूणि पृ. 27 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 45 4. वही, पत्र 45 5. (क) वही, पत्र 45 (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. 27 6. वही, पत्र 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org