________________ सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय]] [119 उम्मज्जा-उन्मज्जा का भावार्थ-मरकगति एवं तिर्यञ्चगति से भविष्य में चिरकाल तक उन्मज्जा अर्थात्-निर्गमन-निकलना दुर्लभ-दुष्कर है। यह कथन प्रायिक है, क्योंकि कई लघुकर्मा तो नरक-तिर्यञ्चगति से निकल कर एक भव में ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।' सपेहाए-सम्प्रेक्ष्य, तुलिया-तोलयित्वा तात्पर्य--इस प्रकार लोलुपता और वंचना से देवत्व और मनुष्यत्व को हारे हुए बालजीव को सम्यक् प्रकार से देख-विचार करके तथा नरक-तर्यञ्चगतिगामी वालजीव को एवं इसके विपरीत मनुष्य-देवगतिगामी पण्डित को गुणदोषवत्ता की दृष्टि से बुद्धि की तुला पर तोल कर / "वेमायाहिं सिक्खाहि........''—विमात्रा शिक्षा का अर्थ यहाँ विविध-मात्राओं अर्थात् परिमाणों वाली शिक्षाएँ हैं। जैसे किसी गहस्थ का प्रकृतिभद्रता आदि का अभ्यास कम होता है, किसी का अधिक और किसी का अधिकतर होता है। इस तरह विविध तरतमताओं (डिग्रियों) में मानवीय गुणों के अभ्यास, शिक्षाओं से / शिक्षा का यह अर्थ शान्त्याचार्य ने किया है। चूर्णि में शिक्षा का अर्थ 'शास्त्रकलाओं में कौशल' किया गया है। गिहिसुव्वया : 'गृहिसुव्रता'--शब्द के तीन अर्थ-(१) गृहस्थों के सत्पुरुषोचित व्रतों गुणों से युक्त, (2) गृहस्थ सज्जनों के प्रकृतिभद्रता, प्रकृतिविनीतता, सानुक्रोशता (सदयहृदयता) एवं अमत्सरता आदि व्रतों-प्रतिज्ञाओं को धारण करने वाले, (3) गृहस्थों में सुव्रत अर्थात् ब्रह्मचरणशील / इन तीनों अर्थों में से दूसरा अर्थ यहाँ अधिक संगत है; क्योंकि यहाँ व्रत शब्द प्रागमोक्त बारह व्रतों के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। उन अणुव्रतादि का धारक गृहस्थ श्रमणोपासक देवगति (वैमानिक) में अवश्य उत्पन्न होता है। प्रस्तुत गाथा में सुवती की उत्पत्ति मनुष्ययोनि में बताई गई है। इसलिए यहाँ 'व्रत' का अर्थ प्रकृतिभद्रता प्रादि गृहस्थपुरुषोचित व्रत-प्रण (प्रतिज्ञा) है। बृहद्वृत्तिकार ने यहाँ नीतिशास्त्रोक्त सज्जनों के व्रत उद्ध त किये हैं--- "विपाच्चैः धैर्य, पदमनुविधेयं हि महताम् / प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरम् // असन्तो नाभ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः / सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधारावतमिदम् // " विपत्ति में उच्च गम्भीरता-धीरता तथा महान व्यक्तियों का पदानुसरण, जिसे न्याययुक्त वृत्ति प्रिय है, प्राण जाने पर भी नियम या व्रत में मलिनता जिसके लिए दुष्कर है, दुर्जन से किसी प्रकार की प्रार्थना-याचना न करना, निर्धन मित्र से भी याचना न करना। न जाने. सज्जनों को यह विषम असिधारावत किसने बताया है ? यहाँ 'गृहिसुव्रता' पद की व्याख्या को देखते हुए व्रत से 35 मार्गानुसारी गुण सूचित होते हैं / 1. बुहद्वृत्ति पत्र 281 2. वही, पत्र 281 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 281 (ख) 'शिक्षा नाम शास्त्रकलासु कौशलम् / ' –उत्त. चूणि, पृ. 165 4. (क) बृहद्वृत्ति पत्र 281 : ' सुव्रताश्च धृतसत्पुरुषव्रताः', ते हि प्रकृतिभद्रताद्यभ्यासानुभावत एव / ग्रागमविहितव्रतधारणं त्वमीषामसम्भवि, देवगतिहेतुत्वेन तदभिधानात् / (ख) चउहि ठाणे हि जीवो मणस्सताते कम्म पगरेंति, तं. गतिभट्याए, पगतिविणोययाए साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए। —स्थानांग, स्था. 4141373 (ग) 'ब्रह्मचरणशीला सुव्रताः'-उत्त. चूणि, पृ. 165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org