________________ परिशिष्ट 1 : उत्तराध्ययन की कतिपय सूक्तिशं] अहे बयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई। माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ दुहप्रो भयं // 6 // 54 / / क्रोध से प्रात्मा नीचे गिरता है। मान से अधम गति प्राप्त करता है / माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। लोभ से इस लोक और परलोक-दोनों में हो भय-कष्ट होता है। दुमपत्तए पण्डयए जहा, निवडइ राइगणाण अक्धए / एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 1 // जिस प्रकार पेड़-वृक्ष के पीले पत्ते समय आने पर भूमि पर गिर पड़ते हैं; उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी आयु के समाप्त होने पर क्षीण हो जाता है। अतएव, गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न करो। कुसग्गे जह ओसबिन्दुए, थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए / एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 2 // जैसे कुशा घास) की नोक पर लटकी हुई ओस को बुन्द थोड़े समय तक ही टिक पाती है, ठीक ऐसा ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है। अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न करो। विहुणाहि रयं पुरे कडं // 10 // 3 // पूर्वसंचित कर्म-रूपी रज को झटक दो। दुल्लहे खलु माणुसे भवे / 10 / 4 / / मनुष्यजन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है / परिजरइ ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हवन्ति ते / से सव्वबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 26 / / शरीर जीर्ण होता जा रहा है. केश पक कर सफेद हो गये हैं। शरीर का समस्त बल क्षीण होता जा रहा है, अतएव, गौतम ! क्षण भर भी प्रमाद न कर / / तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ? अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 34 // . . . तू महासमुद्र को पार कर चुका है, अब किनारे आकर क्यों रुक गया ? पार पहुँचने के लिए शीघ्रता कर / हे गोतम ! क्षण भर का भो प्रमाद उचित नहीं है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org