________________ 696] [उत्तराध्ययनसून सव्वं जगं जइ तुम्भ, सव्वं वा वि धणं भवे / सव्वं पि ते अपज्जतं, नेव ताणाय तं तव // 18 // 69 / / यदि सम्पूर्ण जगत् और जगत् का समस्त धन-वैभव भी तुम्हें दे दिया जाय, तब भी वह तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं होगा। मगर वह तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं होगा। एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि // 14 // 40 / / राजन् ! एक मात्र धर्म ही रक्षा करने वाला है, उसके सिवाय विश्व में मनुष्य का कोई भी त्राता नहीं हैं। देव-दाणव-गंधवा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा। बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करन्ति तं // 16 / 16 / / देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को नमस्कार करते हैं, क्योंकि वह एक बहुत दुष्कर कार्य करता है। भुच्चा पिच्चा सुहं सुवई, पावसमणे त्ति वुच्चई // 17 / 3 / / जो श्रमण खा-पीकर मस्त होकर सो जाता है, धर्माराधना नहीं करता, वह पापथमण कहलाता है। असंविभागो अचियत्ते पावसमणे त्ति बुच्चई // 17 / 11 / / जो असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है) और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है वह पापश्रमण कहलाता है। अणिच्चे जीवलोगम्मि कि हिंसाए पसज्जसि ? 18 / 11 / / जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है फिर क्यों हिंसा में प्रासक्त होता है ? जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलं // 18 // 13 // जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। किरिअं च रोयए धीरो // 18133 / / धीर पुरुष सदा कर्तव्य में ही रुचि रखते हैं। जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य / __ अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो // 16 // 16 // संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है, चारों ओर दुःख ही दुःख है : जहां प्राणी निरन्तर कष्ट ही पाते रहते हैं। भासियव्वं हियं सच्चं // 16 / 27 / / सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org