Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 808
________________ परिशिष्ट 1 : उत्तराध्ययन की कतिपय सूक्तियां] [697 दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं // 16 / 28 / / अचौर्य व्रत का साधक दांत साफ करने के लिए एक तिनका भी स्वामी की अनुमति के विना ग्रहण नहीं करता। बाहाहि सागरो चेव, तरियन्धो गुणोदही // 16 // 37 / / सद्गुणों की साधना का कार्य भुजाओं से सागर तैरने जैसा है। ___असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो // 16 // 38 / / तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है। इह लोए निप्पिवासस्स, नस्थि किंचि वि दुक्करं // 16 // 45 / / जो व्यक्ति संसार की पिपासा-तृष्णा से रहित है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है / ममत्तं छिन्दए ताए, महानागोव्व कंचुयं // 16187 / / आत्मसाधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके-जैसे कि सर्प शरीर पर आई हुई केंचुली को उतार फेंकता है। लाभालामे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निदापसंसासु, समो माणावमाणो // 16 / 61 // जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है / अप्पणा अनाहो संतो, कहं नाहो भविस्ससि ?20112 // अरे तू स्वयं अनाथ है, दूसरे का नाथ कैसे बन सकता है ? अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं // 20 // 36 // आत्मा स्वयं ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखप्रद है और आत्मा ही कामधेनु और नन्दन बन के समान सुखदायी भी है / अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुप्पट्टिो // 20 // 37 // __ अात्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है / सदाचार में प्रवृत्त प्रात्मा मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। राढामणी वेरुलियप्पगासे। अमहग्घए होइ हु जाणएसु // // 20 // 42 / / वैडूर्य रत्न के समान चमकने वाले काँच के टुकड़े का जानकार के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं / रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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