________________ 698] [उत्तराध्ययनसूत्र नतं अरी कंठछित्ता करेई / जं से करे अप्पणिया दुरप्पा // 2048 / / गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुंचा सकता जितनी दुराचार में प्रवृत्त अपनी स्वयं की आत्मा पहुंचा सकती है। कालेण कालं विहरेज्ज रहें। बलाबलं जाणिय अप्पणो य // 20 // 14 // अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्त्तव्य का पालन करते हुए राष्ट्र में विचरण करिए। सीहो व सद्देण न सन्तसेज्जा / / 21 / 14 / / सिंह के समान निर्भीक रहिए, शब्दों से न डरिए / पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा // 21 // 15 // प्रिय हो या अप्रिय, सब को समभाव से सहन करना चाहिए। न सव्व सम्वत्थऽभिरोयएज्जा // 21 // 15 // हर कहीं, हर किसी वस्तु में मन को न लगा बैठिए / अणेगछन्दा इह माणवेहिं // 21 / 16 / / इस संसार में मनुष्यों के विचार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। अणुन्नए नावणए महेसी। न यावि पूर्य गरिहं च संजए // 21 / 20 / / जो पूजा-प्रशंसा सुनकर कभी अहंकार नहीं करता और निन्दा सुनकर स्वयं को हीन नहीं मानता, वही वस्तुत: महर्षि है / नाणेणं दंसणेणं च, चरितणं तदेण य / खंतीए मुत्तीए य, वड्डमाणो भवाहि य // 22 // 26 // ज्ञान दर्शन चारित्र तप क्षमा और निर्लोभता की दिशा में निरन्तर वर्द्ध मान-बढ़ते रहिए / पन्ना समिक्खए धम्मं // 23 // 25 // साधक को स्वयं की प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा कर सकती है / एगप्पा अजिए सत्तू // 23 // 38 // अपनी ही अविजित असंयत आत्मा अपना शत्रु है। भवतण्हा लया वृत्ता, भीमा भीमफलोदया // 23 / 48 / / संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-बेल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org