________________ परिशिष्ट 1 : उत्तराध्ययन को कतिपय सूक्तियाँ] ___ कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय सील तवो जलं // 23 // 53 // कषाय को अग्नि कहा गया है / उसको बुझाने के लिए ज्ञान, शील, सदाचार और तप जल है मणो साहसिनो भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई। तं सम्मं तु निगिण्हामि धम्मसिक्खाइ कन्थगं // 23 // 58 // यह मन बड़ा ही साहसिक, भयंकर एवं दुष्ट घोड़ा है, जो बड़ी तेजी के साथ इधर-उधर दौड़ता रहता है / मैं धर्मशिक्षारूप लगाम से उस घोड़े को भली भांति वश में किए रहता हूँ / जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं / धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं // 23 // 68 / / जरा और मरण के महाप्रवाह में डूबते प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा-प्राधार है, गति है और उत्तम शरण है। जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी। जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी // 23171 / / छिद्रों वाली नौका पार नहीं पहुंच सकती, किन्तु जिस नौका में छिद्र नहीं है वही पार पहुंच सकती है। सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो // 23 // 73 // यह शरीर नौका है, जीव-आत्मा उसका नाविक है और संसार समुद्र है। महर्षि इस देह रूप नौका के द्वारा संसार-सागर को तैर जाते हैं। जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं // 25 / 27 / / ब्राह्मण वही है जो संसार में रह कर भी काम-भोगों से निलिप्त रहता है। जैसे कमल जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता। न वि मुडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥२५॥३१॥ सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता / जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता और वल्कल वस्त्र धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होई, तवेणं होइ तावसो // 25 // 32 // समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस पद प्राप्त होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org