________________ परिशिष्ट 1 : उत्तराध्ययन को कतिपय सूक्तियाँ सज्माएणं नाणावरणिज्ज कम्मं खवेइ // 26 // 15 // स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादन करने वाले) कर्म का क्षय होता है / वेयावच्चेणं तित्थयरं नामगोत्तं कम्मं निबन्धइ // 29 // 43 // वैयावृत्य से आत्मा तीर्थकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म का उपार्जन करता है। वीयरागयाए णं नेहाणुबन्धणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ // 26 // 45 // वीतराग भाव की साधना से स्नेह (राग) के बन्धन और तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं / अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ // 26 // 48 // दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है। करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ // 26 // 51 // करणसत्य–व्यवहार में स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला प्रात्मा 'जैसी कथनी वैसी करनी' का प्रादर्श प्राप्त करता है। वयगुत्तयाए णं णिविकारत्तं जणयइ // 26 // 54 // वचनगुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है / जहा सूई ससुत्ता, पडियावि न विणस्सइ / तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ // 26 // 56 // धागे में पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी गमती नहीं, उसी प्रकार सूत्र-आगमज्ञान से युक्त प्रात्मा संसार में भटकता नहीं, विनाश को प्राप्त नहीं होता। भवकोडी-संचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ / / 3 / 06 / / करोड़ों भवों में संचित कर्म तपश्चर्या द्वारा क्षीण हो जाते हैं। असंजमे नियत्ति च संजमे य पवत्तणं // 31 / 2 / / असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए / नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ भोक्खं 32 / 2 / / ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से तथा राग एवं द्वेष के क्षय से प्रात्मा एकान्त सुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org