________________ 690] [उत्तराध्ययनसूत्र अदीणमणसो चरे // 2 / 3 / / अदीनभाव से जीवनयापन करना चाहिए। न य वित्तासए परं / / 2 / 20 / / किसी भी प्राणो को त्रास नहीं पहुँचाना चाहिए / संकाभीयो न गच्छज्जा // 2 // 21 // जीवन में शंकाओं से ग्रस्त--भीत होकर मत चलो। __नस्थि जीवस्स नासोत्ति / / 2 / 27 / / आत्मा का कभी नाश नहीं होता। अज्जेबाहं न लभामो, अवि लाभो सुए सिया / जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए // 2 // 31 // 'आज नहीं मिला तो क्या हुग्रा, कल मिल जाएगा'-जो ऐसा विचार कर लेता है उसे अलाभ पोडित नहीं करता। चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वोरियं // 3 / 1 / / इस संसार में प्राणियों को चार परम अंग (उत्तम संयोग) अत्यन्त दुर्लभ हैं---१. मनुष्यता, 2. धर्मश्रवण, 3. सम्यक् धर्मश्रद्धा, 4. संयम में पुरुषार्थ / सद्धा परमदुल्लहा // 3 / 6 / / धर्म में श्रद्धा परम दुर्लभ है। सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई // 3 / 12 / / सरल प्रात्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध प्रात्मा में ही धर्म टिकता है / असंखयं जीविय मा पमायए // 41 // जीवन का धागा टूटने पर पुनः जुड़ नहीं सकता-वह असंस्कृत है, इसलिए प्रमाद मत करो। वेराणुबद्धा नरयं उर्वति / / 4 / 2 / / जो वैर की परम्परा को लम्बे किये रहते हैं, वे नरक प्राप्त करते हैं / कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि // 4 // 3 // कृत कर्मों का फल भोगे विना छुटकारा नहीं है / सकम्मुणा किच्चइ पावकारी / / 4 / 3 / / पापात्मा अपने ही कर्मों से पीडित होता है / वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था // 4 / 5 / / प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नहीं सकता, न इस लोक में न परलोक में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org