________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [637 ___[12] सन्तति-प्रवाह की अपेक्षा से वे (स्कन्ध आदि) अनादि और अनन्त हैं तथा स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं / 13. असंखकालमुक्कोसं एग समयं जहनिया / अजीवाण य रूवीणं ठिई एसा वियाहिया / [13] रूपी अजीवों-पुद्गल द्रव्यों को स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट असंख्यात काल की कही गई है। 14. अणन्तकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्नयं / अजीवाण य रूवीणं अन्तरेयं वियाहियं / / _ [14] रूपी अजीवों का अन्तर (अपने पूर्वावगाहित स्थान) से च्युत होकर उसी स्थान पर कहा गया फिर आने तक का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल है / 15. वणओ गन्धओ चेव रसओ फासो तहा। संठाणओ य विन ओ परिणामो तेसि पंचहा // [15] उनका (स्कन्ध आदि का) परिणमन वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से पांच प्रकार का है। 16. वण्णओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया / किण्हा नोला य लोहिया हालिद्दा सुक्किला तहा // [16] जो (स्कन्ध आदि रूपो अजीव) पुद्गल वर्ण से परिणत होते हैं, वे पांच प्रकार से परिणत होते हैं-कृष्ण, नील, लोहित (रक्त), हारिद्र (--पीत) अथवा शुक्ल (श्वेत)। 17. गन्धओ परिणया जे उ दुविहा ते वियाहिया / सुभिगन्धपरिणामा दुभिगन्धा तहेय य / / [17] जो पुद्गल गन्ध से परिणत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं-सुरभिगन्धपरिणत और दुरभिगन्धपरिणत / 18. रसओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया। तित्त-कडुय-कसाया अम्बिला महरा तहा // [18] जो पुद्गल रस से परिणत हैं, वे पांच प्रकार के कहे गए हैं-तिक्त (-चरपरा-तीखा), कटु, कषाय (कसैला), अम्ल (खट्टा) और मधुर रूप में परिणत / 19. फासओ परिणया जे उ अट्टहा ते पकित्तिया / कक्खडा मउया चेव गरुया लहुया तहा / / 20. सीया उण्हा य निद्धा य य तहा लुक्खा व आहिया। इइ फासपरिणया एए पुग्गला समुदाहिया / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org