________________ 650] [उत्तराध्ययनसूत्र 75. गोमेज्जए य रुयगे अंके फलिहे य लोहियक्खे य / __मरगय-मसारगल्ले भुयमोयग-इन्दनीले य // 76. चन्दण-गेरुय-हंसगम्भ-पुलए सोगन्धिए य बोद्धव्वे / चन्दप्पह-वेरुलिए जलकन्ते सूरकन्ते य॥ [73 से 76] शुद्ध पृथ्वी, शर्करा (कंकड़ वालो), बालू, उपल (पत्थर), शिला (चट्टान), लवण, ऊष (क्षाररूप नौनी मिट्टी), लोहा, ताम्बा, त्रपु (रांगा), शीशा, चांदी, सोना और वन (हीरा), हरिताल, हिंगुल (हींगलू), मैनसिल, सस्यक (या सासक धातुविशेष), अंजन, प्रवाल (मूंगा), अभ्रपटल (अभ्रक) अभ्रबालुक (अभ्रक की परतों से मिश्रित बालू और ये निम्नोक्त) विविध मणियाँ भी बादर पृथ्वीकाय में हैं-- __ गोमेदक, रुचक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजमोचक और इन्द्रनील (मणि), चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त और सूर्यकान्त / 77. एए खरपुढवीए भेया छत्तीसमाहिया। एगविहमणाणत्ता सुहमा तत्थ वियाहिया // [77] ये कठोर (खर) पृथ्वीकाय के छत्तीस भेद हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं / अतः वे अनाना हैं-भेदों से रहित हैं। 78. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा / इत्तो कालविभागं तु तेसि वुच्छं चउन्विहं / / {78] सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं और बादर पृथ्वीकाय के जीव लोक के एक देश (भाग) में हैं / अब चार प्रकार से पृथ्वीकायिक जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा। 79. संतई पप्पाणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // [76] पृथ्वीकायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। 80. बावीससहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे / __ आउठिई पुढवीणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया // [80] पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति बाईस हजार वर्ष की और जघन्य अन्तमुहूर्त को है। 81. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुत्तं जहन्नयं / काठिई पुढवीणं तं कायं तु अमुचओ // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org