________________ 660] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-उदारस-उदार का अर्थ स्थूल है, जो सामान्य जनता के द्वारा मान्य और प्रत्यक्ष हों, जिनको असनाम कर्म का उदय हो / द्वीन्द्रिय वस 127. बेइन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया / पज्जत्तमपज्जत्ता तेसि भेए सुणेह मे // [127] द्वीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / उनके भेदों का वर्णन मुझ से सुनो। (1271 128. किमिणो सोमंगला चव अलसा माइयाया। वासीमुहा य सिप्पीया संखा संखणगा तहा // [128] कृमि, सौमंगल', अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख, शंखनक 129. पल्लोयाणुल्लया चेव तहेव य वराडगा। जलूगा जालगा चेव चन्दणा य तहेव य / / [126] पल्ल का, अणुल्लक, बराटक, जौंक, जालक और चन्दनक-- 130. इइ बेइन्दिया एए गहा एवमायओ। लोगेगदेसे ते सव्वे न सम्वत्थ वियाहिया // [130] इत्यादि अनेक प्रकार के ये द्वीन्द्रिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, - सम्पूर्ण लोक में नहीं। 131. संतई पप्पडणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य / / [131] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। 132. वासाइं बारसे व उ उक्कोसेण वियाहिया / बेन्दियआउठिई 'अन्तोमुहत्तं जहनिया / / [132] द्वीन्द्रिय जीवों की आयुस्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य स्थिति अन्तमहर्त की है। 133. संखिज्जकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं / बेइन्दियकायठिई तं कायं तु अमुचओ // [133] द्वीन्द्रिय जीवों की कास्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है / द्वीन्द्रिय काय (द्वीन्द्रियपर्याय) को न छोड़ कर लगातार उसी में उत्पन्न होते रहना द्वीन्द्रियकायस्थिति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org