Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 794
________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [683 261. बालमरणाणि बहसो अकाममरणाणि चेव य बहूणि / __ मरिहिन्ति ते बराया जिणवयणं जे न जाणन्ति / / [261] जो जीव जिन वचनों से अनभिज्ञ हैं, वे बेचारे अनेक वार बाल-मरण तथा अनेक बार अकाममरण से मरते हैं--मरंगे / 262. बहूआगमविन्नाणा समाहिउप्पायगा गुणगाही। एएण कारणेणं अरिहा आलोयणं सोउं // [262] जो अनेक शास्त्रों के वेत्ता हैं, (पालोचना करने वालों को) समाधि (चित्त में स्वस्थता) उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही होते हैं ; इन गुणों के कारण वे अालोचना सुनने के योग्य होते हैं। विवेचन समाधिमरण में बाधक : अशुभभावनाएँ आदि--समाधिमरण के लिए संलेखनापूर्वक भक्तप्रत्याख्यान(संथारा) किये हुए मुनि के लिए कान्दी, आभियोगिकी, किल्विषिकी, मोही एवं आसुरी, ये पांच अप्रशस्त भावनाएँ बाधक हैं, क्योंकि ये पांचों भावनाएँ सम्यग्दर्शन आदि की नाशक हैं / इसीलिए ये मरणकाल में रत्नत्रय की विराधक हैं और दुर्गति में ले जाने वाली हैं / अतएव इनका विशेषतः त्याग करना आवश्यक है। मरणकाल में इन भावनाओं का त्याग इसलिए आवश्यक कहा गया है कि व्यवहारतः चारित्र की सत्ता होने पर भी जीव को ये दुर्गति में ले जाती हैं। मृत्यु के समय साधक के लिए चार दोष समाधिमरण में बाधक हैं। जिनमें ये चार दोष (मिथ्यादर्शन, निदान, हिंसा और कृष्णलेश्या) हैं, उन्हें अगले जन्म में बोधि भी दुर्लभ होती है / इसके अतिरिक्त जो जिनवचन के प्रति अश्रद्धालु और उनसे अपरिचित होते हैं एवं तदनुसार प्राचरण नहीं करते, वे भी समाधिमरण से वंचित रहते हैं, बल्कि वे बेचारे बार-बार अकाममरण एवं बालमरण से मरते हैं।' समाधिमरण में साधक-पूर्वोक्त गाथाओं से एक बात फलित होती है कि मरण के पहले किसी जीव में कदाचित् ये अशुभ भावनाएँ रही हों, किन्तु मृत्युकाल में वे नष्ट हो जाएँ और शुभ भावनाओं का सद्भाव हो जाए तो वे सद्भावनाएँ समाधिमरण एवं सुगतिप्राप्ति में साधक हो सकती हैं / मृत्यु के समय साधक के लिए समाधिमरण में छह बातें साधक हैं -(1) सम्यग्दर्शन में अनुराग, (2) अनिदानता, (3) शुक्ललेश्या में लीनता, (4) जिनवचन में अनुरक्तता, (5) जिनवचनों को भावपूर्वक जीवन में उतारना एवं (6) आलोचनादि द्वारा प्रात्मशुद्धि। इन बातों को अपनाने से समाधिपूर्वक मरण तो होता ही है, फलस्वरूप उसे आगामी जन्म में बोधि भी सुलभ होती है। वह मिथ्यात्व प्रादि भाव-मल से तथा रागादि संक्लेशों से रहित होकर परीतसंसारी वन जाता है, अर्थात् वह मोक्ष की ओर तीव्रता से गति करता है। समाधिमरण के लिए अन्तिम समय में गुरुजनों के समक्ष अपनी आलोचना (निन्दना, गर्हणा, प्रतिक्रमणा, क्षमापणा एवं प्रायश्चित्त) द्वार प्रात्मशुद्धि करना आवश्यक है। अतः आलोचनादि 1. उत्तरा. प्रियशिनीटीका, भा. 4, पृ. 943 से 945 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844