Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 792
________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] (681 [253] तत्पश्चात् दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और एक दिन पारणा) करे / पारणा के दिन आयाम (अर्थात्-आचाम्ल-पायंबिल) करे। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चोला आदि) तप न करे / 254. तओ संवच्छरद्धं तु विगिट्ठ तु तवं चरे। परिमियं चेव आयामं तंमि संवच्छरे करे / [254] तदनन्तर छह महीने तक विकृष्ट तप (तेला, चोला अादि उत्कट तप) करे / इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणा के दिन) आचाम्ल करे / 255. कोडीसहियमायाम कटु संवच्छरे मुणी / ____ मासद्धमासिएणं तु आहारेण तवं चरे / / [255] बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि-सहित अर्थात्-निरन्तर प्राचाम्ल करके, फिर वह मुनि पक्ष या एक मास के आहार से तप-अनशन करे / विवेचन-संलेखना : स्वरूप-द्रव्य से शरीर को (तपस्या द्वारा) और भाव से कषायों को कृश (पतले) करना 'संलेखना' है।' संलेखना-धारणा कब और क्यों ?-जव शरीर अत्यन्त अशक्त, दुर्बल और रुग्ण हो गया हो, धर्मपालन करना दूभर हो गया हो, या ऐसा आभास हो गया हो कि अब यह शरीर दीर्घकाल तक नहीं टिकेगा. तब संलेखना करना चाहिए / प्रव्रज्या ग्रहण करते ही या शरीर सशक्त एवं धर्मपालन में सक्षम हो तो संलेखना ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी अभिप्राय से शास्त्रकार ने र संकेत किया है 'तओ बहूणि वासाणि सामण्णमणुपालिया' / किन्तु शरीर अशक्त, अत्यन्त दुर्बल एवं धर्मपालन करने में असमर्थ होने पर भी संलेखना-ग्रहण करने के प्रति उपेक्षा या उदासीनता रखना उचित नहीं है / एक प्राचार्य ने कहा है-“मैंने चिरकाल तक मुनिपर्याय का पालन किया है तथा मैं दीक्षित शिष्यों को वाचना भी दे चुका हूँ, मेरी शिष्यसम्पदा भी यथायोग्य बढ़ चुकी है, अत: अब मेरा कर्तव्य है कि मैं अन्तिम पाराधना करके अपना भी श्रेय (कल्याण) करू।" अर्थात् साधु को पिछली अवस्था में संघ, शिष्य-शिष्या, उपकरण आदि के प्रति मोह-ममत्व का परित्याग करके संलेखना अंगीकार करना चाहिए।' संलेखना की विधि--संलेखना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन प्रकार की है। उत्कृष्ट संलेखना 12 वर्ष की होती है। जिसके तीन विभाग करने चाहिए / प्रत्येक विभाग में चार-चार वर्ष पाते हैं / प्रथम चार वर्षों में दूध, दही, घी, मीठा और तेल आदि विग्गइयों (विकृतियों) का त्याग 1. उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 4, पृ. 939 2. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 4, पृ. 937 (ख) "परिपालिओय वोहो, परियाओ, वायणा तहा दिपणा / णिपकाइया य सीसा, सेयं मे अपणो काउं॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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