Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 762
________________ छत्तीसवां अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [651 [81] पृथ्वीकायिक जीवों को उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात काल (असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल) की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। पृथ्वीकाय को न छोड़ कर लगातार पृथ्वीकाय में ही उत्पन्न होते रहना पृथ्वीकायिकों को कायस्थिति कहलाती है। 82. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं / विजदंमि सए काए पुढवीजीवाण अन्तरं // [82] पृथ्वीकाय को एक बार छोड़ कर (दूसरे-दूसरे कायों में उत्पन्न होते रहने के पश्चात्) पुन: पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने के बीच का अन्तर-(काल) जघन्य अन्तर्महत और उत्कृष्ट अनन्तकाल baither 83. एएसि वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वा वि विहाणाइं सहस्ससो॥ [83] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा (-आदेश) से इन (पृथ्वीकायिकों) के हजारों भेद होते हैं। विवेचन-पृथ्वीकाय : स्वरूप और भेद-प्रभेद आदि-काठिन्यादिरूपा पृथ्वी ही जिसका शरीर है, उसे पृथ्वीकाय कहते हैं / पृथ्वी में जीव है, इसीलिए यहाँ 'पुढवीजीवा' कहा गया है / यह देखा गया है कि लवण, या चदान आदि खोद कर निकाल लेने के बाद खाली जगह को कचरा प्रादि से भर देने पर कालान्तर में वहाँ लवण की परतें या चट्टानें बन जाती हैं। इसलिए पृथ्वी में सजीवता अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से सिद्ध है / पृथ्वोकाय जीवों के दो भेद—सूक्ष्म और बादर / फिर दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद / बादरपर्याप्त पृथ्वीकाय के दो भेद- मृदु और कठोर / मृदु के सात और कठोर के छत्तीस भेद कहे गए हैं।' पर्याप्त-अपर्याप्त—जिस कर्मदलिक से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति की उत्पत्ति होती है, वह कर्मदलिक पर्याप्ति कहलाता है / यह कर्मदलिक जिसके उदय में होता है, वे पर्याप्त जीव हैं, अपनी योग्य पर्याप्ति से जो रहित हैं, वे अपर्याप्त जीव हैं। श्लक्ष्ण एवं खर : विशेषार्थ—णित लोष्ट के समान जो मृदु पृथ्वी है, वह श्लक्ष्ण और पाषाण जैसी कठोर पृथ्वी खर कहलाती है। ऐसे शरीर वाले जीव भी उपचार से क्रमशः श्लक्ष्ण और खर पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं / 1. (क) पृथिव्येव कायो येषां ते पृथ्वीकायिनः / पृथिवी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता, सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः।' -प्रज्ञापना पद 1 वत्ति / (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनी टीका भा. 4, 5 824 2. वही, प्रियदर्शिनीटीका, भा. 4, पृ. 825 3. ......""श्लक्ष्णा चूणितलोप्टकल्पा मृदुः पृथिवी, तदात्मका जीवा अप्युपचारात् श्लक्ष्णा उच्यन्ते / ' पाषाणकल्पा कठिना पृथ्वी खरा, तदात्मका जीवा अप्युपचारात् खरा उच्यन्ते / ' ---वही, भा. 4, 5. 827 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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