________________ 656] [उत्तराध्ययनसून त्रसकाय के तीन भेद 107. तेऊ वाऊ य बोद्धव्या उराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे / / [107] तेजस्काय (अग्निकाय), वायुकाय और उदार (एकेन्द्रिय त्रसों की अपेक्षा स्थूल द्वीन्द्रिय आदि) त्रस--ये तीन त्रसकाय के भेद हैं / उनके भेदों को मुझ से सुनो। विवेचन तेजस्काय एवं वायुकाय : स्थावर या त्रस ?--ग्रागमों में कई जगह तेजस्काय और वायुकाय को पांच स्थावर रूप एकेन्द्रिय जीवों में बताया है, जब कि यहाँ तथा तत्त्वार्थसूत्र में इन दोनों को त्रस में परिगणित किया है. इस अन्तर का क्या कारण है ? पंचास्तिकाय में इसका समाधान करते हुए कहा गया है-पथ्वी, अप और वनस्पति, ये तीन तो स्थिरयोगसम्बन्ध के कारण स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु अग्निकाय और वायुकाय उन पांच स्थावरों में ऐसे हैं, जिनमें चलनक्रिया देख कर व्यवहार से उन्हें अस कह दिया जाता है। उस दो प्रकार के हैं-लब्धित्रस और गतित्रस / वसनामकर्म के उदय वाले लब्धित्रस कहलाते हैं। किन्तु स्थावर नामकर्म का उदय होने पर भी बस जैसी गति होने के कारण जो त्रस कहलाते हैं वे गतित्रस कहलाते हैं। तेजस्कायिक और वायकायिक उपचारमात्र से त्रस हैं।' अग्निकाय की सजीवता–पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है, इसलिए अग्नि में जीव है। ___ वायुकाय को सजीवता वायु में भी जीव है, क्योंकि वह गाय की तरह दूसरे से प्रेरित हुए विना ही गमन करती है / तेजस्काय-निरूपरण 108 दुविहा तेउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। [108] तेजस् (अग्नि) काय के जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर / पुनः इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो-दो भेद हैं। 109. बायरा जे उ पज्जता गहा ते वियाहिया। इंगाले मुम्मुरे अग्गी अच्चि जाला तहेव य // 1. (क) पंचास्तिकाय मुल, ता. वृत्ति, 111 गा. (ख) 'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः' तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च नसाः। -- तत्त्वार्थसूत्र 2 / 13-14 (ग) तत्त्वार्थसूत्र ( पं. सुखलाल जी ) प. 55 2. (क) तेजोऽपि सात्मकम, आहारोपादानेन वृद्ध यादिविकारोपलम्भात् पुरुषांगवत् / (ख) 'वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरितस्वे तिर्यग्गतिमत्वाद् गोवत् / ' –स्याद्वादमंजरी 211330 / 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org