________________ पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय] [425 विजयघोष ब्राह्मण द्वारा जयघोष मुनि से प्रतिप्रश्न 13. तस्सऽक्खेवपमोक्खं च अचयन्तो तहि दिओ। ___सपरिसो पंजली होउं पुच्छई तं महामुणि / / [13] उसके आक्षेपों (आक्षेपात्मक प्रश्नों) का प्रमोक्ष (उत्तर देने) में असमर्थ ब्राह्मण (विजयघोष) ने अपनी समग्र परिषद्-सहित हाय जोड़ कर उन महामुनि से पूछा-- 14. वेयाणं च मुहं बूहि बूहि जन्ताण जं मुहं / नक्खत्ताण मुहं बूहि ब्रूहि धम्माण वा मुहं / / 14] (विजयघोष ब्राह्मण-) तुम्हीं कहो वेदों का मुख क्या है ? यज्ञों का जो मुख है, उसे बतलाइए, नक्षत्रों का मुख बताइए और धर्मों का मुख भी कहिए / 15. जे समत्था समुद्धत्तु परं अप्पाणमेव य। एयं मे संसयं सव्वं साहू ! कहसु पुच्छिओ // [15] और-- जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी बताइए / 'हे साधु ! मुझे यह सब संशय है', (इसीलिए) मैंने आपसे पूछा है / आप कहिए / विवेचन--तस्सऽक्खेवपमोक्खं च अचयंतो साधु (जयघोष) के प्राक्षेपों अर्थात् प्रश्नों का प्रमोक्ष अर्थात् उत्तर देने में अशक्त–असमर्थ / ' जयघोष मुनि द्वारा समाधान 16. अग्गिहोत्तमुहा वेया जन्नट्ठी वेयसां मुहं / नक्खत्ताण मुहं चन्दो धम्माणं कासवो मुहं / / [16] वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख 'यज्ञार्थी' है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है, और धर्मों के मुख हैं-काश्यप (ऋषभदेव)। 17. जहा चंदं गहाईया चिट्ठन्ती पंजलीउडा। वन्दमाणा नमसन्ता उत्तम मणहारिणो // [17] जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह यादि (देव) हाथ जोड़े हुए चन्द्रमा को वन्दन-नमस्कार करते हुए रहते हैं, वैसे ही भगवान् ऋषभदेव हैं-(उनके समक्ष भी देवेन्द्र आदि सभी विनयावनत एवं करबद्ध हैं)। 18. अजाणगा जन्नवाई विज्जा माहणसंपया। गूढा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवऽग्गिणो॥ [18] विद्या ब्राह्मण (माहन) की सम्पदा है, यज्ञवादी उससे अनभिज्ञ हैं। वे बाह्य स्वाध्याय और तप से वैसे ही प्राच्छादित हैं, जैसे राख से आच्छादित (ढंकी हई) अग्नि / 1. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोप भा. 4, पृ. 1420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org