________________ पणतीसइमं अज्झयणं : पैंतीसवाँ अध्ययन अणगारमग्गगई : अनगारमार्गगति उपक्रम 1. सुणेह मेगग्गमणा मग्गं बुद्धहि देसियं / जमायरन्तो भिक्खू दुक्खाणऽन्तकरो भवे / / [1] बुद्धों (---तीर्थंकरों या ज्ञानियों) द्वारा उपदिष्ट मार्ग को तुम एकाग्रचित्त हो कर मुझ से सुनो, जिसका प्राचरण करके भिक्षु (मुनि) दुःखों का अन्त करने वाला होता है / विवेचन-बुद्धहि देसियं-बुद्ध का अर्थ है जो केवलज्ञानी हैं, जो यथार्थरूप से वस्तुतत्त्व के ज्ञाता हैं, उन अर्हन्तों द्वारा, अथवा श्रुतकेवलियों द्वारा या गणधरों द्वारा उपदिष्ट / ' दुषखाणंतकरो- समस्त कर्मों का निर्मूलन करके शारीरिक मानसिक, सभी दुःखों का अन्तकर्ता हो जाता है। संगों को जान कर त्यागे __2. गिहवासं परिच्चज्ज पवज्ज अस्सियो मुणी / इमे संगे वियाणिज्जा जेहिं सज्जन्ति माणवा // [2] गृहवास का परित्याग कर प्रबजित हुआ मुनि, उन संगों को जाने, जिनमें मनुष्य आसक्त (प्रतिबद्ध) होते हैं। विवेचन–सर्वसंगपरित्यागरूपा प्रव्रज्या-भागवती दीक्षा स्वीकार किया हा मुनि इन (सर्वप्राणियों के लिए प्रत्यक्ष) संगों-पुत्रकलत्रादिरूप प्रतिबन्धों को भवभ्रमण हेतु जाने-ज्ञपरिज्ञा से समझे और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उन्हें त्यागे, जिनमें मानव आसक्त होते हैं, अथवा जिन संगों से मानव ज्ञानावरणीयादि कर्म से प्रतिबद्ध हो जाते हैं / हिंसादि प्रास्त्रवों का परित्याग 3. तहेव हिंसं अलियं चोज्जं अबम्भसेवणं / इच्छाकामं च लोभं च संजओ परिवज्जए / [3] इसी प्रकार संयमी मुनि हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म (चर्य) सेवन, इच्छा, काम, और लोभ का सर्वथा त्याग करे / 1. बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष. भा. 1, पृ. 279 2. बही, अ. रा. कोष भा. 1, पृ. 279 3. वही, अ. रा. कोष. भा. 1, पृ. 280 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org