________________ ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्रुतपूजा] [181 [18] जिस प्रकार हथिनियों से घिरा हुआ साठ वर्ष का बलिष्ठ हाथी किसी से पराजित नहीं होता, वैसे ही बहुश्रुत साधक (पौत्पत्तिकी आदि बुद्धिरूपी हथिनियों से तथा विविध विद्याओं से युक्त होकर) किसी से भी पराजित नहीं होता। 19. जहा से तिर्खासगे जायखन्धे विरायई / वसहे जूहाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए / [16] जैसे तीखे सींगों एवं बलिष्ठ स्कन्धों वाला वृषभ यूथ के अधिपति के रूप में सुशोभित होता है, वैसे ही बहुश्रुत (स्वशास्त्र-परशास्त्र रूप तीक्ष्ण शृगों से, गच्छ का गुरुतर-कार्य-भार उठाने में समर्थ स्कन्ध से साधु आदि संघ के अधिपति -प्राचार्य के रूप में) सुशोभित होता है। 20. जहा से तिक्खदाढे उदग्गे दुप्पहंसए / सीहे मियाण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए // [20] जैसे तीक्ष्ण दाढों वाला, पूर्ण वयस्क एवं अपराजेय (दुष्प्रधर्ष) सिंह वन्यप्राणियों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत (नैगमादि नयरूप) दाढों से तथा प्रतिभादि गुणों के कारण दुर्जय एवं श्रेष्ठ होता है। 21. जहा से वासुदेवे संख-चक्क-गयाधरे / अप्पडिहयबले जोहे एवं हवइ बहुस्सुए। 21] जैसे शंख, चक्र और गदा को धारण करने वाला वासुदेव अप्रतिबाधित बल वाला योद्धा होता है, वैसे ही बहुश्रुत (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप त्रिविध आयुधों से युक्त एवं कर्मरिपुओं को पराजित करने में अपराजेय योद्धा की तरह समर्थ) होता है / 22. जहा से चाउरन्ते चक्कबट्टी महिड्डिए / चउद्दसरयणाहिबई एवं हवइ बहुस्सुए // [22] जैसे महान् ऋद्धिमान् चातुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी (आमषधि आदि ऋद्धियों तथा पुलाकादि लब्धियों से युक्त, चारों दिशाओं में व्याप्त कीति वाला चौदह पूर्वो का स्वामी) होता है। 23. जहा से सहस्सक्खे वज्जपाणी पुरन्दरे / सक्के देवाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए // [23] जैसे सहस्राक्ष, वज्रपाणि एवं पुरन्दर शक देवों का अधिपति होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी (देवों के द्वारा पूज्य होने से) देवों का स्वामी होता है / 24. जहा से तिमिरविद्ध से उत्तिद्वन्ते दिवायरे / जलन्ते इव तेएण एवं हवइ बहुस्सुए। [24] जैसे अन्धकार का विध्वंसक उदीयमान दिवाकर (सूर्य) तेज से जाज्वल्यमान होता है, वैसे ही बहुश्रुत (अज्ञानान्धकारनाशक होकर तप के तेज से जाज्वल्यमान) होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org