________________ बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय] [203 तप, संयम एवं चारित्र का प्रत्यक्ष चमत्कार देख कर विस्मित हुए ब्राह्मणों के हैं। वे अब सुलभबोधि एवं मुनि के प्रति श्रद्धालु भक्त बन गए थे। अतः उनके मुख से निकलती हुई यह वाणी श्रमणसंस्कृति के तत्त्व को अभिव्यक्त कर रही है कि जातिवाद प्रतात्त्विक है, कल्पित है। इसी सूत्र में आगे चल कर कहा जाएगा-"अपने कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है, जन्म (जाति) से नहीं।" सूत्रकृतांग में तो स्पष्ट कह दिया है -- "मनुष्य की सुरक्षा उसके ज्ञान और चारित्र से होती है, जाति और कुल से नहीं।' व्यक्ति की उच्चता-नीचता का आधार उसकी जाति और कुल नहीं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र या तप-संयम है। जिसका ज्ञान-दर्शन-चारित्र उन्नत है, या तपसंयम का आचरण अधिक है, वही उच्च है, जो प्राचारभ्रष्ट है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र से रहित है, वह चाहे ब्राह्मण की सन्तान ही क्यों न हो, निकृष्ट है। जैनधर्म का उद्घोष है कि किसी भी वर्ण, जाति, देश, वेष या लिंग का व्यक्ति हो, अगर रत्नत्रय की निर्मल साधना करता है तो उसके लिए सिद्धि-मुक्ति के द्वार खुले हैं / यही प्रस्तुत गाथा का प्राशय है।' मुनि और ब्राह्मणों की यज्ञ-स्नानादि के विषय में चर्चा 38. कि माहणा ! जोइसमारभन्ता उदएण सोहि बहिया विमग्गहा? ___ जं मग्गहा बाहिरियं विसोहि न तं सुदिळं कुसला वयन्ति / [38] (मुनि) ब्राह्मणो ! अग्नि (ज्योति) का (यज्ञ में) समारम्भ करते हुए क्या तुम जल (जल आदि पदार्थों) से बाहर की शुद्धि को ढूंढ रहे हो? जो बाहर में शुद्धि को खोजते हैं; उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्ट--(सम्यग्दृष्टिसम्पन्न या सम्यग्द्रष्टा) नहीं कहते / 36. कुसं च जूवं तणकट्ठमगि सायं च पायं उदगं फुसन्ता / पाणाइ भूयाइ बिहेडयन्ता भुज्जो वि मन्दा ! पगरेह पावं // [36] कुश (डाभ), यूप (यज्ञस्तम्भ), तृण (घास), काष्ठ और अग्नि का प्रयोग तथा प्रात:काल और सायंकाल में जल का स्पर्श करते हुए तुम मन्दबुद्धि लोग (जल आदि के आश्रित रहे हुए द्वीन्द्रियादि) प्राणियों (प्राणों) का और भूतों (वनस्पतिकाय का, उपलक्षण से पृथ्वीकायादि जीवों) का विविध प्रकार से तथा फिर (अर्थात् प्रथम ग्रहण करते समय और फिर शुद्धि के समय जल और अग्नि आदि के जीवों का) उपमर्दन करते हुए बारम्बार पापकर्म करते हो। 40. कह चरे ? भिक्खु ! वयं जयामो ? पावाइ कम्माइ पणुल्लयामो ? अक्खाहि णे संजय ! जक्खपूइया ! कहं सुइट्ठ कुसला बयन्ति ? [40] (रुद्रदेव-) हे भिक्षु ! हम कैसे प्रवृत्ति करें ? कैसे यज्ञ करें ? जिससे हम पापकर्मों को -सूत्रकृतांग 1 / 13 / 11 1. (क) कम्मुणा भणो होई..."उत्तरा. अ. 25 / 31 (ख) न तस्स जाई व कुलं व ताणं, नन्नत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं। (ग) उववाईसूत्र 1 (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र 369-370 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org