________________ 216] [उत्तराध्ययनसूत्र 17. बालाभिरामेसु दुहावहेसु न तं सुहं कामगुणेसु रायं! विरत्तकामाण तवोधणाणं जं भिक्खुणं शीलगुणे रयाणं // [17] राजन् ! अज्ञानियों को रमणीय प्रतीत होने वाले, (किन्तु वस्तुतः) दुःखजनक कामभोगों में वह सुख नहीं है, जो सुख शीलगुणों में रत, कामभोगों से (इच्छाकाम-मदनकामों से) विरक्त तपोधन भिक्षुओं को प्राप्त होता है / 18. नरिंद ! जाई प्रहमा नराणं सोवागजाई दुहओ गयाणं / जहि वयं सव्वजणस्स वेस्सा वसीय सोवाग-निवेसणेसु / / [18] हे नरेन्द्र ! मनुष्यों में श्वपाक (-चाण्डाल) जाति अधम जाति है, उसमें हम दोनों जन्म ले चुके हैं; जहाँ हम दोनों चाण्डालों की बस्ती में रहते थे, वहाँ सभी लोग हमसे द्वेष (घृणा) करते थे। 19. तोसे य जाईइ उ पावियाए वुच्छामु सोवागनिवेसणेसु / सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा इहं तु कम्माइं पुरेकडाई॥ [16] उस पापी (नोच-निन्द्य) जाति में हम जन्मे थे और उन्हीं चाण्डालों की बस्तियों में हम दोनों रहे थे; (उस समय) हम सभी लोगों के घृणापात्र थे, किन्तु इस भव में (यहाँ) तो पूर्वकृत (शुभ) कर्मों का शुभ फल प्राप्त हुआ है। 20. सो दाणिसिं राय ! महाणुभागो महिड्डिओ पुण्णफलोववेओ। चइत्तु भोगाई असासयाई आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि // [20] (उन्हीं पूर्वजन्मकृत शुभ कर्मों के फलस्वरूप) इस समय वह (पूर्वजन्म में निन्दितघृणित) तू महानुभाग (अत्यन्त-प्रभावशालो), महान् ऋद्धिसम्पन्न, पुण्यफल से युक्त राजा बना है। अतः तू अशाश्वत (क्षणिक) भोगों का परित्याग करके अादान, अर्थात--चारित्रधर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण (प्रव्रज्या-ग्रहण) कर। 21. इह जीविए राय ! असासयम्मि धणियं तु पुग्णाई अकुन्धमाणो। से सोयई मच्चुमुहोवणीए धम्मं अकाऊण परंसि लोए॥ [21] राजन् ! इस अशाश्वत (अनित्य) मानव जीवन में जो विपुल (या ठोस) पुण्यकर्म (शुभ-अनुष्ठान) नहीं करता, वह मृत्यु के मुख में पहुँचने पर पश्चात्ताप करता है / वह धर्माचरण न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। 22. जहेह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तम्मिऽसहरा भवंति // [22] जैसे यहाँ सिंह मृग को पकड़ कर ले जाता है, वैसे ही अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है / उस (मृत्यु) काल में उसके माता-पिता एवं भार्या (पत्नी) (तथा भाई-बन्धु, पुत्र आदि) कोई भी मृत्यु-दुःख के अंशधर (हिस्सेदार) नहीं होते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org