________________ चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय अध्ययन-सार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम है--इषुकारीय / इसमें भृगु पुरोहित के कुटुम्ब के निमित्त से 'इषुकार' राजा को प्रतिबोध मिला है और उसने आर्हतशासन में प्रवजित होकर मोक्ष प्राप्त किया है / इस प्रकार के वर्णन को लेकर इषुकार राजा को लौकिक प्रधानता के कारण इस अध्ययन का नाम 'इषुकारीय' रखा गया है / ' * प्रत्येक प्राणी कर्मों के अनुसार पूर्वजन्मों के शुभाशुभ संस्कार लेकर आता है। अनेक जन्मों की करणी के फलस्वरूप विविध प्रात्माओं का एक ही नगर में, एक कूटम्ब में तथा एक ही धर्मपरम्परा में अथवा एक ही वातावरण में पारस्परिक संयोग मिलता है। इस अध्ययन के प्रारम्भ में छह आत्माओं के इस अभूतपूर्व संयोग का निरूपण है। ये छह जीव ही इस अध्ययन के प्रमुख पात्र हैं-महाराज इषुकार, रानी कमलावती, पुरोहित भृगु, पुरोहितपत्नी यशा तथा पुरोहित के दो पुत्र / * इसमें ब्राह्मणसंस्कृति की कुछ मुख्य परम्पराओं का उल्लेख पुरोहितकुमारों और पुरोहित के संवाद के माध्यम से किया है(१) प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में रह कर वेदाध्ययन करना / (2) तत्पश्चात् गृहस्थाश्रम स्वीकार कर विवाहित होकर विषयभोग-सेवन करके पुत्रोत्पत्ति करना; क्योंकि पुत्ररहित की सद्गति नहीं होती। (3) गृहस्थाश्रम में रहकर ब्राह्मणों को भोजन कराना। (4) फिर पुत्रों का विवाह करके, उनके पुत्र हो जाने पर घर का भार उन्हें सौंपना / (5) इसके पश्चात् ही अरण्यवासी (वानप्रस्थी) मुनि हो जाना / ब्राह्मणसंस्कृति में गृहस्थाश्रम का पालन न करके सीधे ही वानप्रस्थाश्रम या संन्यासाश्रम स्वीकार करना वजित था। * किन्तु भगु पुरोहित के दोनों पुत्रों में पूर्वजन्मों का स्मरण हो जाने से श्रमणसंस्कृति के त्याग प्रधान संस्कार उबुद्ध हो गए और वे उसी मार्ग पर चलने को कटिबद्ध हो गए। अपने पिता (भगु पुरोहित) को उन्होंने श्रमणसंस्कृति के त्याग एवं तप से कर्मक्षयद्वारा आत्मशुद्धिप्रधान सिद्धान्त के अनुसार युक्तिपूर्वक समझाया, जिसका निरूपण 12 वीं गाथा से 15 वी गाथा तक तथा 17 वीं गाथा में किया गया है / * भगु पुरोहित ने जब नास्तिकों के तज्जीव-तच्छरीरवाद को लेकर आत्मा के नास्तित्व का प्रतिपादन किया तो दोनों कुमारों ने प्रात्मा के अस्तित्व एवं उसके बन्धनयुक्त होने का सयुक्तिक सप्रमाण प्रतिपादन किया, जिससे पुरोहित भी निरुत्तर और प्रतिबुद्ध हो गया। पुरोहितानी 1. उत्तरा, नियुक्ति, गाथा 362 2. उत्तरा. मूलपाठ, प्र. 14, गा.१ से 3, तथा 12 वीं से 17 बी तक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org