________________ बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय] [197 उच्चावयाई : दो रूप : तीन अर्थ-(१) उच्चावचानि उत्तम-अधम या उच्च-नीच. मध्यम कुलों-घरों में, (2) अथवा उच्चावच का अर्थ है-छोटे-बड़े नानाविध तप, अथवा (3) उच्चव्रतानि-अर्थात्–शेष व्रतों की अपेक्षा से महाव्रत उच्च व्रत हैं, जिनका आचरण मुनि करते हैं / वे तुम्हारी तरह अजितेन्द्रिय व अशील नहीं हैं / अतः वे उच्चव्रती मुनिरूप क्षेत्र ही उत्तम हैं।' __ अज्ज : दो अर्थ-(१) अद्य-प्राज, इस समय जो यज्ञ आरम्भ किया है, उसका, (2) प्रार्यो : हे पार्यो ! लभित्थ लाभं : भावार्थ विशिष्ट पुण्यप्राप्तिरूप लाभ तभी मिलेगा, जब पात्र को दान दोगे / कहा भी है-अपात्र में दही, मधु या घृत रखने से शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार अपात्र में दिया हुआ दान हानिरूप है / 2 / ब्राह्मणों द्वारा यक्षाधिष्ठित मुनि को मारने-पीटने का आदेश तथा उसका पालन 18. के एत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खण्डिएहि / एवं खु दण्डेण फलेण हन्ता कण्ठम्मि घेत्तूण खलेज्ज जो गं?।। 18] (रुद्रदेव-) हैं कोई यहाँ क्षत्रिय, उपज्योतिष्क (-रसोइये) अथवा विद्यार्थियों सहित अध्यापक, जो इस साधु को डंडे से और फल (बिल्व आदि फल या फलक-पाटिया) से पोटकर और कण्ठ (गर्दन) पकड़ कर यहाँ से निकाल दे / 19. प्रज्ञावयाणं वयणं सुणेत्ता उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा / दण्डेहि वित्तेहि कसेहि चेव समागया तं इसि तालयन्ति / / [16] अध्यापकों (उपाध्यायों) का वचन (प्रादेश) सुनकर बहुत-से कुमार (छात्रादि) दौड़ कर वहाँ आए और डंडों से, बेंतों से और चाबुकों से उन हरिकेशवल ऋषि को पीटने लगे। विवेचन-विशिष्ट शब्दों के अर्थ खत्ता-क्षत्र, क्षत्रियजातीय, उवजोइया--उपज्योतिष्क, अर्थात्-अग्नि के पास रहने वाले रसोइए अथवा ऋत्विज, खंडिकेहि-खण्डिकों-छात्रों सहित / दंडेण : दो अर्थ (1) बृहद्वृत्ति के अनुसार-डंडों से, (2) वृद्धव्याख्यानुसार दंडों से-- बांस, लट्ठी आदि से, अथवा कुहनी मार कर / भद्रा द्वारा कुमारों को समझा कर मुनि का यथार्थ परिचय-प्रदान 20. रन्नो तहिं कोसलियस्य ध्या भद्द त्ति नामेण अणिन्दियंगी। तं पासिया संजय हम्ममाणं कुद्ध कुमारे परिनिव्ववेइ / / [20] उस यज्ञपाटक में राजा कौशलिक की अनिन्दित अंग वाली (अनिन्द्य सुन्दरी) कन्या भद्रा उन संयमी मुनि को पीटते देख कर क्रुद्ध कुमारों को शान्त करने (रोकने) लगी। 1. बृहद्वत्ति, पत्र 262-363 2. वही, पत्र 363 3. वही, पत्र 362 4. (क) वही, पत्र 363 (ख) चूणि, पृ. 207 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org