________________ 154] [उत्तराध्ययनसूत्र बढ़ाने आदि को बात कहना और उन वस्तुओं की वृद्धि न होने से मुनिधर्मानुष्ठान के अयोग्य बताना युक्तिविरुद्ध है / ' हिरणं सुवणं-हिरन्य सुवर्ण : तीन अर्थ-(१) हिरण्य-चांदी, सुवर्ण-सोना / (2) सुवर्ण-हिरण्य---शोभन (सुन्दर) वर्ण का सोना / (3) हिरण्य का अर्थ घड़ा हुआ सोना और सुवर्ण का अर्थ बिना घड़ा हुआ सोना। इइ विज्जा : दो रूप : दो अर्थ (1) इति विदित्वा—ऐसा जानकर, (2) इति विद्वान्–इस कारण से विद्वान् साधक 13 दशम प्रश्नोत्तर : प्राप्त कामभोगों को छोड़ कर अप्राप्त को पाने की इच्छा के संबंध में 50. एयमढ़ निसामित्ता हेउकारण-चोइओ। तम्रो नाम रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥ [50] (राजर्षि के मुख से) इस सत्य को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से यह कहा 51. 'अच्छेरगमम्भुदए भोए चयसि पत्थिया! / ____ असन्ते कामे पत्थेसि संकप्पेण विहन्नसि // ' [51] हे पृथ्वीपते ! आश्चर्य है कि तुम सम्मुख पाए हुए (प्राप्त) भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त (अविद्यमान) काम-भोगों की अभिलाषा कर रहे हो! (मालूम होता है) (उत्तरोत्तर अप्राप्त-भोगाभिलाषरूप) संकल्प-विकल्पों से तुम बाध्य किये जा रहे हो / 52. एयमळं निसामित्ता हेउ-कारणचोइओ। तम्रो नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ {52] (देवेन्द्र की) इस बात को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित होकर नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा 53. 'सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा। कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दोग्गई। {53] (ये शब्दादि) काम-भोग शल्य रूप हैं, ये कामादि विषय विषतुल्य हैं, ये काम 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 316 (ख) उत्त. प्रियदर्शिनी टीका, भा. 2, पृ. 443 2. (क) उत्तरा. चणि, पृ. 185: हिरण्यं-रजतं, शोभनवर्ण-सुवर्णम् / (ख) बृहवृत्ति, पत्र 316 : हिरण्यं-सुवर्ण-सुवर्ण शोभनवणं विशिष्टवणिकमित्यर्थः / यद्वा-हिरण्यं--- घटितस्वर्णमितरस्तु सुवर्णम् / (ग) सुखबोधा, पत्र 151 3. बृहद्वत्ति, पत्र 316 : 'इति---इत्येतत्श्लोकद्वयोक्त विदित्वा, यद्वाइति-अस्माद्ध तोः, विद्वान्–पण्डितः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org