________________ नवम अध्ययन : नमिप्रवज्या] [155 आशीविष सर्प के समान हैं / कामभोगों को चाहने वाले (किन्तु परिस्थितिवश) उनका सेवन न कर सकने वाले जीव भी दुर्गति प्राप्त करते हैं। 17 54. अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई। माया गईपडिग्घाओ लोभाओ दुहओ भयं // [54] क्रोध से जीव अधो (नरक) गति में जाता है, मान से अधमगति होती है, माया से सद्गति का प्रतिघात (विनाश) होता है और लोभ से इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों प्रकार का भय होता है। विवेचन-इन्द्र-कथित हेतु और कारण जो विवेकवान् होता है, वह अप्राप्त की आकांक्षा से प्राप्त कामभोगों को नहीं छोड़ता, जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि / यह हेतु है अथवा हेतु इस प्रकार भी है-आप कामभोगों के परित्यागी नहीं हैं क्योंकि आप में अप्राप्त कामभोगों की अभिलाषा विद्यमान है / जो-जो ऐसे होते हैं, वे प्राप्त कामों के परित्यागी नहीं होते, जैसे मम्मण सेठ / उसी तरह आप भी हैं / इसलिए आप प्राप्त कामों के परित्यागी नहीं हो सकते तथा कारण इस प्रकार है-प्रव्रज्याग्रहण से अनुमान होता है, आप में अप्राप्त भोगों की अभिलाषा है, किन्तु अप्राप्त भोगों की अभिलाषा, प्राप्त कामभोगों के अपरित्याग के बिना बन नहीं सकती। इसलिए प्राप्त कामभोगों का परित्याग करना अनुचित है।' नमि राजर्षि द्वारा उत्तर का आशय-मोक्षाभिलाषी के लिए विद्यमान और अविद्यमान, दोनों प्रकार के कामभोग शल्य, विष और आशीविष सर्प के समान हैं / रागद्वेष के मूल एवं कषायवर्द्धक होने से इन दोनों प्रकार के कामभोगों की अभिलाषा सावद्यरूप है / इसलिए मोक्षाभिलाषी के लिए प्राप्त या अप्राप्त कामभोगों की अभिलाषा, सर्वथा त्याज्य है / आपने अविद्यमान भोगों के इच्छाकर्ता को प्राप्तकामभोगों का त्यागी नहीं माना, यह हेतु प्रसिद्ध है। क्योंकि मैं मोक्षाभिलाषी हूँ, मोक्षाभिलाषी में लेशमात्र भी कामाभिलाषा होना अनुचित है। इसलिए कामभोग ही नहीं, विद्यमानअविद्यमान कामभोगों की अभिलाषा मैं नहीं करता।' प्रभुदए भोए : तीन रूप : तीन अर्थ-(१) अद्भुतकान् भोगान्--आश्चर्यरूप भोगों को, (2) अभ्युद्यतान् भोगान्-प्रत्यक्ष विद्यमान भोगों को, (3) अभ्युदये भोगान्-इतना धन, वैभव, यौवन, प्रभुत्व आदि का अभ्युदय (उन्नति) होते हुए भी (सहजप्राप्त) भोगों को। संकप्पेण विहन्नसि-आप संकल्पों (अप्राप्त कामभोगों की प्राप्ति की अभिलाषारूप विकल्पों) से विशेषरूप से ठगे जा रहे हैं या बाधित-उत्पीड़ित हो रहे हैं।' 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 317 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 447-448 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 317 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 451 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 317 4. (क) वही, पत्र 317 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 447 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org